अपना घर
अपना घर
रीना को अपने कपड़े बैग में भरते देख अभी-अभी नींद से जागा मोहन लापरवाही से हँस पड़ा था, मानो कहना चाह रहा हो, "जाओगी कहाँ ? तेरे बाप के घर में तो खाने को रोटी ही नहीं है। रहना तो तुझे मेरे घर में ही पड़ेगा।"
किंतु रीना ने नज़रअंदाज कर दिया था, वह मोहन से बात किये बिना सिर में आई चोट को सहलाती बाहर आ गई। जो कल शराब के नशे में पति ने उपहार स्वरूप दे दी थी।
वह सीधी होस्टल गई जहाँ कामकाजी परिवार से दूर रहने वाली लड़कियाँ रहा करती थी। रमन ससुर की गिड़गिड़ाती आवाज में आने वाले फोन का इंतजार गुजरे चार दिन से कर रहा था। किंतु नहीं आया तो खुद ही फोन मिला लिया। ससुरजी चहकते हुए मजे से बात कर रहे थे,
"अब दिमाग की घंटी बजी। रीना के बारे में पूछ ही लिया।" वह वहाँ थी ही नहीं तो ससुरजी के लिए भी चिंता का विषय हो गया।
दोनों ने ही रीना के नम्बर पर फोन किया।
पिता- "तुम अपने ससुराल में नहीं हो और यहाँ भी नहीं हो, आखिर हो कहाँ ?"
रमन- "तुम अपने मायके नहीं हो आखिर हो कहाँ ?"
रीना ने शांति से दोनों को एक ही जवाब दिया -
"मैं न मायके मैं रहूंगी और न ही ससुराल में, मैं अपने घर में रहूंगी !
बस, मैं वहाँ आ गई हूँ...।"