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द्वंद्व युद्ध - 06

द्वंद्व युद्ध - 06

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केवल कुछ एक ईमानदार और महत्वाकांक्षी अफ़सरों को छोड़कर बाकी सभी अफ़सर फ़ौजी सेवा को एक अप्रिय, घृणास्पद, ज़बर्दस्ती लादे गए बोझ के समान मानते थे, वे इससे थक चुके थे और इसे बिल्कुल पसन्द नहीं करते थे। कनिष्ठ अफ़सर तो स्कूल के विद्यार्थियों के समान कक्षाओं में देर से आते और चुपचाप वहाँ से भाग भी जाते यदि उन्हें पता चलता कि इसके लिए उन्हें कोई दंड नहीं दिया जाएगा। कम्पनी कमांडर्स, जो ज़्यादातर बड़े परिवार वाले हुआ करते थे, घरेलू उलझनों और अपनी बीवियों के प्रेम प्रकरणों में उलझे रहते, भयानक ग़रीबी और आय के साधनों से बाहर जीवन के बोझ तले दबे रहते, सीमा से अधिक खर्चों और प्रॉमिसरी नोटों के जुए के बोझ से चरमराते रहते। वे कर्ज़ पे कर्ज़ लेते रहते, एक जगह से कर्ज़ लेकर दूसरी जगह चुकाते; कई अफ़सर, अक्सर अपनी बीबियों के कहने पर, कम्पनी का पैसा उठा लेते या फिर अतिरिक्त काम के लिए सिपाहियों को मिलने वाले पैसे में से ले लेते; कुछ लोग महीनों और कई बार तो सालों तक सिपाहियों के पैसे रखे ख़तों को रोक लेते, जिन्हें अफ़सरों को पहले खोल कर देखना पड़ता था। कुछ लोग तो बस जुए पर ही जीते थे: कोई बेईमानी से खेलता, इसके बारे में सब जानते, मगर इसे उंगलियों की ओट से देखते। खेलते समय सभी भयानक नशा करते, चाहे वह मीटिंगों में हो, या एक दूसरे के घर में, कुछ और, इसके अलावा जैसे, अकेलेपन में ज़िन्दगी गुज़ारते।


इस तरह से अफ़सरों के पास अपनी फ़ौजी सेवा को संजीदगी से लेने का वक़्त ही नहीं था। आम तौर से कम्पनी के अन्दरूनी कामकाज की देखभाल सार्जेन्ट, मेजर किया करता। वही ऑफ़िस का हिसाब किताब भी देखता और कम्पनी कमांडर को किसी की नज़र में आए बिना, मगर मज़बूती से अपने गठीले, अनुभवी हाथों में दबोच कर रखता था। अपनी नौकरी पर कमांडर भी उतनी ही बेदिली से जाते, जितने कि उनके अधीनस्थ अफ़सर, और “सिपाहियों की खिंचाई” किया करते, सिर्फ़ अपने बड़प्पन को दिखाने के लिए, और कभी कभार सत्ता के मद में आकर।


बटालियन के कमांडर तो कुछ करते ही नहीं थे, ख़ासकर सर्दियों में। फ़ौज में दो ऐसे बीच के ओहदे है बटालियन कमांडर का और ब्रिगेड कमाडर का; ये दोनों अफ़सर हमेशा एक अस्पष्ट और बेकार की परिस्थिति में रहते है। हाँ, गर्मियों में उन्हें बटालियन में पढ़ाने का काम ज़रूर करना पड़ता, रेजिमेन्ट और डिविज़न की शिक्षा में हिस्सा लेना पड़ता और कठिन फौजी प्रक्रियाओं की ट्रेनिंग देनी पड़ती। ख़ाली समय में वे मेस रूम में,  लगातार “इनवॅलिड” पढ़ते, प्रमोशन्स के बारे में बहस करते, ताश खेलते, कनिष्ठ अफ़सरों को अपनी मेहमान नवाज़ी करने के लिए प्रेरित करते, अपने घरों में शाम को छोटी मोटी पार्टियाँ आयोजित करते और अपनी अनेक बेटियों की शादी करवाने की कोशिश करते।


मगर, जब बड़े बड़े इन्स्पेक्शनों का समय निकट आता तो छोटे से लेकर बड़े तक सभी एक दूसरे की खिंचाई करते। तब कोई आराम का नाम तक न लेता, एक्स्ट्रा समय में ज़ोर शोर से, हाँलाकि फ़ालतू मेहनत करके वह सब पूरा करने की कोशिश करते जो छूट गया था। सिपाहियों की शारीरिक क्षमता का ख़्याल नहीं रखा जाता, उन्हें थका थका कर बेज़ार कर दिया जाता। कम्पनी कमांडर बड़ी क्रूरता से कनिष्ठ अफसरों को सताते, उनसे गालीगलौज करते, कनिष्ठ अफ़सर बड़े भौंडे तरीक़े से ऊलजुलूल गालियाँ देते। अंडर ऑफ़िसर्स, जिनके गले डाँट-डाँट कर भर्रा चुके होते, बेदर्दी से मारपीट पर उतर आते। हाँ, मारपीट करने वाले केवल अंडर ऑफ़िसर्स तक ही सीमित न रहते।

ये दिन बिल्कुल नरक के समान हुआ करते थे, और पूरी बटालियन इतवार के दिनों की कुछ और घंटों की नींद के और आराम से भरे स्वर्गीय सुख के सपने देखा करती, कमांडर से लेकर अत्यंत क्लान्त और दयनीय हालत वाले अर्दली तक।


इस बसन्त में मई की परेड की तैयारियाँ ज़ोर शोर से चल रही थीं। शायद इस बात का सबको पता चल चुका था कि सलामी कोरकमांडर लेने वाले है, जो कड़े अनुशासन प्रिय जनरल योद्धा थे। विश्व के सामरिक साहित्य में कार्लिस्टों और सन् 1870 के फ्रान्कोप्रशियन युद्धों से संबंधित अपने लेखों के कारण, जिनमें उन्होंने स्वेच्छा से भाग लिया था, प्रसिद्ध थे। इससे भी ज़्यादा मशहूर थे उनके आदेश जो तराशी हुई सुवोरोव शैली में लिखे होते थे। इन आदेशों में, अपने ख़ास अंदाज़ में, वे ग़लती करने वाले अपने अधीनस्थ अफ़सरों पर बड़ी बेदर्द व्यंगात्मक मार करते। इन आदेशों से अफ़सर बहुत डरते थे, किसी भी प्रकार की अनुशासनात्मक सज़ा से भी ज़्यादा। इसलिए रेजिमेन्ट में, पिछले दो हफ़्तों से, जुनूनभरी जल्दबाज़ी से काम चल रहा था, और इसलिए इतवार के दिन का थके हुए अफ़सरों को और थकान से बेहाल सिपाहियों को बड़ी बेसब्री से इंतज़ार था।


मगर रमाशोव के लिए, अपनी क़ैद के कारण, इस मीठे आनन्द का पूरा लुत्फ जाता रहा। वह बड़ी जल्दी उठा और, कोशिश के बावजूद दुबारा सो न सका। उसने अलसाते हुए कपड़े पहने, नफ़रत से चाय पी और एक बार तो किसी बात से गैनान पर ज़ोर से चिल्ला पड़ा, जो हमेशा की तरह, कुत्ते के पिल्ले जैसा ख़ुशमिजाज़, चुस्त और भद्दा था।

भूरे रंग के खुले जैकेट में रमाशोव अपने छोटे से कमरे में चक्कर लगा रहा था, कभी उसके पैर पलंग की टांगों से टकरा जाते, कभी कुहनियाँ धूल भरे, मरियल शेल्फ से घिसट जातीं। पिछले डेढ़ साल में पहली बार और वह भी इस अकस्मात् हुई दुर्भाग्यपूर्ण घटना की बदौलत वह एकदम अकेला रह गया था। पहले, अपनी फौजी नौकरी, चौकीदारी की ड्यूटी, क्लब की पार्टियों, ताश की बाज़ियों, पीटर्सन की जी-हुज़ूरी, निकोलायेवों के घर बिताई शामों के कारण वह अकेला नहीं रह पाता था। अगर कभी, संयोगवश, कुछ ख़ाली समय बच भी जाता, जब करने के लिए कुछ होता नहीं था, तो रमाशोव, थकान और बेकारगी से क्लान्त होकर, मानो अपने आप से घबरा कर, फ़ौरन या तो क्लब भाग जाता या फिर दोस्तों के यहाँ, या बस सड़क पर निकल कर तब तक घूमता रहता जब तक कि कोई कुँवारा साथी न मिल जाता, जिसका अंत होता पीने पाने से। मगर इस समय वह उकताहट से सोच रहा था कि सामने तनहाई भरा सारा दिन मुँह बाए खड़ा है और उसके दिमाग़ में विचित्र, अटपटे और अनावश्यक विचार घर करने लगे।     

   

शहर में दूसरी प्रार्थना के घंटे बजने लगे। खिड़की की दूसरी, अब तक न निकाली गई चौखट से छनकर थरथराती हुई, मानो एक के भीतर से दूसरी उत्पन्न हो रहीं। चर्च के घंटों की, बसंती ढब की लुभावनी शोकपूर्ण आवाज़ें रमाशोव तक पहुँच रही थीं। खिड़की से लगकर ही बगीचा शुरू होता था, जहाँ चेरी के बहुत सारे पेड़ लगे थे, सभी फूलों के कारण सफ़ेद, गोल गोल और घुंघराले, जैसे बर्फ सी सफ़ेद भेडों का रेवड़ हो, जैसे कि सफ़ेद पोषाकों में लिपटी लड़कियों का झुंड हो। उनके बीच में यहाँ वहाँ खड़े थे सीधे, सुघड़ पोप्लर वृक्ष जिनकी टहनियाँ प्रार्थना की मुद्रा में ऊपर, आसमान की ओर उठी हुई थीं, पुराने चेस्टनट वृक्ष अपने भारी भरकम गुम्बद जैसे शिखर फैलाए खड़े थे; पेड़ अभी तक नंगे थे और उनकी ख़ाली शाखाएँ काली पड़ चुकी थीं, मगर चुपके से, आँखों को नज़र आए बगैर पहली, रोंएदार हरियाली से सजने शुरू हो गए थे। सुबह साफ़, चमकदार, नम थी। पेड़ ख़ामोशी से सिहर रहे थे और हौले से डोल रहे थे। ऐसा महसूस हो रहा था मानो उनके बीच में ठंडा, ख़ुशनुमा, हवा का हल्का सा झोंका घूम रहा हो और खेल रहा हो, शरारत कर रहा हो और आख़िरकार फूलों को नीचे झुका कर उन्हें चूम रहा हो।


खिड़की से बाहर दाईं ओर, गेट से होकर गंदे, काले रास्ते का एक हिस्सा दिखाई दे रहा था, जिसके दूसरी ओर किसी की बागड़ थी। इस बागड़ के किनारे किनारे, सावधानी से सूखी जगहों पर कदम रखते हुए धीरे धीरे लोग चल रहे थे। उनके सामने पूरा दिन पड़ा है। रमाशोव ने ईर्ष्यापूर्वक आँखों से उनका पीछा करते हुए सोचा, इसीलिए वे जल्दबाज़ी नहीं कर रहे है। एक पूरा ख़ाली दिन!।

और उसका दिल इतनी शिद्दत से, फ़ौरन कपड़े पहनकर कमरे से बाहर जाने की इच्छा करने लगा कि आँखों में आँसू तैर गए। वह क्लब की तरफ़ नहीं जाना चाह रहा था जैसा कि हमेशा होता था, बल्कि सिर्फ कमरे से बाहर, खुली हवा में निकलना चाह रहा था। जैसे कि आज से पहले उसे आज़ादी की क़ीमत ही मालूम नहीं थी, और आज उसे ख़ुद को ही यह सोचकर आश्चर्य हो रहा था कि अपनी मर्ज़ी से कहीं भी निकल जाने की, किसी भी गली में मुड़ जाने की, चौक पर जाने की, चर्च के भीतर प्रवेश करने की, और यह सब बिना डरे, परिणामों के बारे में सोचे बिना करने की छोटी सी, सीधी सादी संभावना में कितना सुख छुपा है। यह संभावना उसे अचानक आत्मा के एक महान उत्सव जैसी प्रतीत हुई।


और साथ ही याद आया कि बचपन में, कैडेट स्कूल में जाने से पूर्व, कैसे उसकी माँ  सज़ा के तौर पर उसका पैर एक पतले धागे से पलंग के साथ बांध देती और ख़ुद बाहर चली जाती। नन्हा रमाशोव आज्ञाकारी बालक की भाँति घंटों बैठा रहता और कोई वक़्त होता तो दिन भर के लिए घर से भाग जाने के बारे में एक पल के लिए भी न सोचता, हाँलाकि ऐसा करने के लिए उसे दूसरी मंज़िल की खिड़की से पानी के पाइप से फिसलकर जाना पड़ता। इस तरह से फिसलकर वह अक्सर मॉस्को के दूसरे छोर तक भागा करता था। फ़ौजी धुनें सुनने के लिए या अंतिम संस्कार में जाने के लिए, वह अक्सर बड़े दोस्तों के लिए घर से शक्कर, जॅम और सिगरेटें चुराया करता था। मगर धागा! धागा उस पर बड़ा विचित्र सम्मोहक प्रभाव डालता था। वह उसे ज़ोर से खींचने में भी डरता था, जिससे कि वह टूट न जाए। यहाँ सज़ा का डर नहीं था, और, बेशक़, न ही ईमानदारी वाली, न ही पछतावे वाली बात थी, बल्कि था सम्मोहन, बस सम्मोहन, बड़े लोगों के असंभव और शक्तिशाली कामों के प्रति अंधविश्वासयुक्त भय, एक ऐसा डर जो किसी आज्ञाकारी मूरख के मन में होता है किसी जादूगर द्वारा खींचे गए जादुई दायरे के प्रति।

और अब मैं यहाँ बैठा हूँ, एक स्कूली विद्यार्थी के समान, एक बच्चे के समान जिसकी एक टाँग बांध दी गई है। रमाशोव ने कमरे में बेवजह इधर उधर घूमते हुए सोचा, दरवाज़ा खुला है, मैं अपनी मर्ज़ी से चाहे जहाँ जाना चाहता हूँ, अपनी मर्ज़ी से कुछ भी करना चाहता हूँ, बातें करना, हँसना, और मैं बैठा हूँ धागे से बंधा। यह मैं बैठा हूँ। मैं। वाक़ई मैं। यह मैं हूँ! मगर ये फ़ैसला तो सिर्फ़ उसी ने किया है, कि मैं इस तरह बैठा रहूँ। मैंने तो अपनी रज़ामन्दी दी ही नहीं है।


“मैं!” रमाशोव कमरे के बीचों बीच रुक गया और पैर फैलाए, सिर झुकाए, गहरी सोच में डूब गया। “मैं! मैं! मैं!” अचानक वह आश्चर्य से ज़ोर से चहका, मानो पहली बार इस छोटे से शब्द का अर्थ समझ गया हो। “यह कौन खड़ा है और नीचे देख रहा है, फर्श पर पड़ी काली दरार को देख रहा है? यह मैं हूँ। ओह, कितना अजीब है!। "मैं” उसने इस आवाज़ में पूरी अंतर्चेतना केन्द्रित करते हुए हौले से उसे खींचा। 


वह अनमने और फूहड़पन से मुस्कुराया मगर तभी विचारों के तनाव से उसकी भौंहे चढ़ गईं, चेहरा सफ़ेद पड़ गया। ऐसा उसके साथ पिछले पाँच छह सालों में अक्सर हुआ था, जैसा कि मन की परिपक्वता के दौरान क़रीब क़रीब सभी नौजवानों के साथ होता है। एक छोटा सा सच, छोटा सा मुहावरा, एक आम वाक्य, जिसका अर्थ सहज बुद्धि से उसे बहुत पहले से ज्ञात था। उसने अचानक किसी आंतरिक प्रदीपन की बदौलत एक गहरा, दार्शनिक रूप ग्रहण कर लिया था, और तब उसे ऐसा प्रतीत हुआ मानो वह पहली बार उसे सुन रहा हो, शायद उसी ने उसे खोज निकाला हो। उसे यह भी याद आया कि पहली बार यह कैसे हुआ था। स्कूल में धार्मिक शिक्षा की कक्षा में पादरी पत्थर उठाकर ले जाते हुए मज़दूरों के बारे में एक नीति कथा समझा रहे थे। एक मज़दूर पहले छोटे छोटे और हल्के पत्थर उठा कर ले गया, और बाद में वह भारी पत्थरों की ओर बढ़ा, मगर वह आख़िरी कुछ पत्थर उठा ही नहीं पाया; दूसरे ने इसका ठीक उल्टा तरीक़ा अपनाया और उसने अपना काम भली भाँति पूरा कर लिया। इस सीधी साधी कहानी के पीछे, जिसे वह तब से जानता, समझता था जब से उसने पढ़ना सीखा था, छिपे हुए व्यावहारिक ज्ञान का पूरा पिटारा मानो रमाशोव के सामने अचानक खुल गया। वही जानी पहचानी कहावत “ सात बार नापो एक बार काटो” के साथ भी हुआ। किसी एक ख़ुशनुमा घड़ी में वह उसमें निहित सभी बातों को समझ गया: बुद्दिमत्ता, दूरदर्शिता, सावधानी, हिसाब किताब। इन पाँच छह शब्दों में जीवन का महान अनुभव छिपा था। इसी तरह अभी भी अपने व्यक्तित्व का अप्रत्याशित एवम् प्रखर एहसास उसके दिलोदिमाग़ को झकझोर गया।


मैं यह मेरे भीतर है, रमाशोव सोच रहा था, और बाकी सब दूसरा है, वह ‘मैं’ नहीं है। मिसाल के तौर पर ये कमरा, रास्ता, पेड़, आसमान, फौज का कमांडर, लेफ्टिनेंट अन्द्र्युसेविच, फौजी नौकरी, झंडा, सैनिक ये सब ‘मैं’ नहीं है। नहीं, नहीं, ये ‘मैं’ नहीं। ये मेरे हाथ और पैर, रमाशोव ने अचरज से अपने हाथों की ओर देखा, उन्हें चेहरे के निकट ले गया और, मानो पहली बार उन्हें देख रहा हो, नहीं, ये सब ‘मैं’ नहीं है और, ये, मैं अपने हाथ को चुटकी काट रहा हूँ। हाँ, ऐसे यह ‘मैं’ हूँ। मैं हाथ देख रहा हूँ, उसे ऊपर उठाता हूँ ये मैं हूँ। वो, जो मैं अभी सोच रहा हूँ, वो भी ‘मैं’ है और अगर मैं चलना चाहूँ, तो ये ‘मैं’ हूँ और, लो, मैं रुक गया ये ‘मैं’ है।


ओह, यह कितना अजीब है, कितना आसान और कितना शायद यह ‘मैं’ सभी के पास होता है? हो सकता है, कि वह सबके पास न हो? शायद, मेरे अलावा किसी और के पास वह हो ही नहीं? तो, अगर वह है तो क्या हुआ? ये मेरे सामने सौ सैनिक खड़े है, और मैं चिल्लाकर उन्हें हुक्म देता हूँ, ‘नज़र दाएँ!’ और सौ सैनिक, जिनमें से हर एक के पास अपना ‘मैं’ है और जो मुझमें एक अजनबी को, बाहरी आदमी को, जो ‘मैं’ नहीं है, वे सब अपने अपने सिर दाहिनी ओर घुमा लेते है। मगर मैं उन्हें एक दूसरे से अलग करके नहीं देख सकता, वे एक झुंड है और कर्नल शूल्गविच के लिये, हो सकता है, मैं, और वेत्किन, और ल्बोव, और सारे लेफ़्टिनेंट, सारे कैप्टन भी इसी तरह एक चेहरे में ढल जाते है, और उसके लिये हम भी उतने ही अजनबी है, और वह भी हममें भेद नहीं कर सकता?

दरवाज़ा चरमराया और गैनान कमरे में प्रकट हुआ। पैरों को बदलते हुए, कंधों को हिलाते हुए, मानो डान्स कर रहा हो, वह चिल्लाया, “हुज़ूर, स्टोर वाले ने सिगरेट देने से इंकार कर दिया। कहता है, लेफ्टिनेंट स्क्र्याबिन ने हुक्म दिया है कि तुम्हें और उधार न दिया जाए”


 “आह, शैतान!” रमाशोव के मुँह से निकला। “ख़ैर, तुम जाओ, जाओ। बग़ैर सिगरेट के मेरा काम कैसे चलेगा? चलो, कोई बात नहीं, तुम जा सकते हो, गैनान" मैं अभी किस बारे में सोच रहा था? अकेले रह जाने पर रमाशोव ने अपने आप से पूछा। उसके ख्यालों की लड़ी खो चुकी थी और एक क्रमबद्ध तरीक़े से सोचने की आदत के कारण वह तुरंत उसे ढूँढ नहीं पाया। अभी अभी मैं किस बारे में सोच रहा था? किसी महत्वपूर्ण और ज़रूरी चीज़ के बारे में। ठहरो, वापस जाना पड़ेगा। क़ैद में बैठा हूँ। रास्ते पर लोग चल रहे है। बचपन में माँ बांध दिया करती थी। ’मुझे’ बांध दिया करती थी। हाँ, हाँ, सैनिक के पास भी ‘मैं’ होता है। कर्नल शूल्गविच, याद आ गया। अब, आगे, मैं कमरे में बैठा हूँ। मुझे बंद नहीं किया गया है। चाहता हूँ, मगर उसमें से बाहर नहीं जा सकता। क्यों नहीं जा सकता? क्या मैंने कोई अपराध किया है? चोरी? खून? नहीं; किसी दूसरे, अजनबी से, बात करते समय, मैं अटेन्शन की मुद्रा में नहीं था और मैंने कुछ कह दिया। शायद मुझे अटेन्शन में होना चाहिए था? क्यों? क्या यह महत्वपूर्ण है? क्या यह जीवन में प्रमुख है? और बीस तीस साल बीत जाएँगे उस वक़्त का एक सेकंड, जो मुझ से पहले था, और मेरे बाद होगा। एक सेकंड! मेरा ‘मैं’ बुझ जाएगा, लैम्प की तरह, जिसकी बत्ती नीचे घुमा दी गई है। मगर लैम्प को तो फिर से जला दिया जाएगा, फिर से, और बार बार, मगर मैं नहीं रहूँगा। ये कमरा भी नहीं रहेगा, न रहेगा आसमान, न ही ये रेजिमेन्ट, न ही पूरी फौज, न सितारे, न धरती, न मेरे हाथ और न ही पैर। क्योंकि ‘मैं’ नहीं रहूँगा। हाँ, हाँ, यह ऐसा ही है। चलो, अच्छी बात है। रुको, सिलसिलेवार सोचना चाहिए।तो, आगे, मैं न रहूँगा, अंधेरा था, किसी ने मेरी ज़िंदगी का दीप जला दिया और फौरन बुझा भी दिया, और फिर से अंधेरा हो गया, हमेशा के लिए, हमेशा, हमेशा के लिए। इस छोटे से लम्हे में मैंने किया क्या है? मैंने अपने हाथ पतलून की सिलाई पर सीधे रखे और एड़ियों को जोड़े रखा, चुस्ती से मार्च करता रहा, पूरी ताक़त से चिल्लाता रहा: “कंधे पर!” “अपनी ओर न मुड़ी हुई” बंदूक की नोक देख कर चिल्लाता रहा, सैंकड़ों आदमियों के सामने थरथराता रहा। किस लिए? इन भूतों ने, जो मेरे ‘मैं’ के साथ साथ मर जाएँगे, मुझे सैंकड़ों बेकार के और अप्रिय काम करने पर मजबूर किया है और इनकी बदौलत ‘मुझे’ नीचा दिखाया गया, ‘मेरा’ अपमान किया गया। ‘मेरा!!!’ मेरे ‘मैं’ने इन भूतों के सामने सिर क्यों झुका दिया?


रमाशोव कुहनियाँ टेके, हाथों से सिर पकड़े मेज़ पर बैठ गया। बड़ी मुश्किल से वह इन अजनबी, दौड़ते हुए विचारों को रोकने की कोशिश कर रहा था।


हम्म और तुम भूल गए? पितृभूमि को? बचपन को? वर्दी? फौजी सम्मान और अनुशासन? अगर तुम्हारी मातृभूमि में विदेशी, दुश्मन घुस आएँ तो उसकी रक्षा कौन करेगा? हाँ, जब मैं मर जाऊँगा, तो न रहेगी मातृभूमि, न रहेंगे दुश्मन और न ही आत्म गौरव। उनका अस्तित्व तब तक है जब तक मेरी चेतना अस्तित्व में है। मगर यदि मातृभूमि, और आत्मगौरव, और वर्दी, और सब महान शब्द लुप्त हो जाएँ तो मेरा ‘मैं’ अनुल्लंघनीय रहेगा। हो सकता है, फिर भी मेरा ‘मैं’ कर्तव्य की, आत्मगौरव की, प्रेम की कल्पनाओं से कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण है? अब मान लो, मैं फौज में नौकरी कर रहा हूँ और अचानक मेरा ‘मैं’ कहता है: ‘नहीं चाहता!’ नहीं केवल मेरा ‘मैं’ नहीं, बल्कि फौज बनाने वाले लाखों ‘मैं’, नहीं और भी ज़्यादा धरती पर रहने वाले सभी ‘मैं’, अचानक कहें ‘नहीं चाहता!’ और तत्क्षण युद्ध बेमतलब हो जाएगा और फिर कभी भी, कभी भी ये “चार चार की लाइन बना!” और “ हाफ टर्न दाएँ!” नहीं होगा क्योंकि उनकी ज़रूरत ही न रहेगी। हाँ, हाँ, हाँ! ऐसा ही है, ऐसा ही है! रमाशोव के भीतर कोई आवाज़ प्रसन्नता से चिल्लाई। यह सब युद्ध का पराक्रम, और अनुशासन, और रैंक की जी हुज़ूरी करना, और वर्दी की गरिमा, और समूचा युद्ध संबंधी विज्ञान, यह सब केवल इसी बात पर टिका हुआ है, क्योंकि मानवता कहना नहीं चाहती, या कहने में असंभव है कि “नहीं चाहते!” यह युद्ध व्यवसाय से संबंधित धूर्तता से बनाई गई संस्था आख़िर है क्या चीज़? कुछ भी नहीं। धोखा, हवा में लटकती हुई संस्था, जो कम से कम उन दो शब्दों, ‘नहीं चाहता’ पर भी आधारित नहीं है, बल्कि सिर्फ इस तथ्य पर आधारित है कि अभी तक इन शब्दों को न जाने क्यों, लोगों द्वारा कहा नहीं गया है। मेरा ‘मैं’ बेशक ऐसा नहीं कहेगा कि ‘खाना नहीं, चाहता, साँस लेना नहीं चाहता, देखना नहीं चाहता’। मगर यदि उसे मरने की सलाह दी जाए तो वह निश्चित रूप से, बिल्कुल निश्चित रूप से कहेगा, ‘नहीं चाहता’। फिर आख़िर युद्ध है क्या चीज़, अपनी अवश्यंभावी मौतों समेत और युद्ध कौशल के साथ, जो मारने की बेहतरीन विधियों की शिक्षा देता है? क्या यह वैश्विक ग़लती है? अंधापन है?

नहीं, तुम रुको ज़रा, ठहरो। हो सकता है, शायद, मैं ही ग़लत हूँ। ऐसी बात नहीं है कि मैं ग़लती न करूँ, क्योंकि यह ‘नहीं चाहता’ इतना सीधा साधा, इतना सहज है कि वह हरेक के दिमाग़ में आया ही होगा। चलो, ठीक है: चलो, ग़ौर से सोचते है। मिसाल के तौर पर, मान लो, इसी क्षण ये ख़याल सब के दिमागों में आता है: रुसियों के, जर्मनों के, अंग्रेज़ों के, जापानियों के। और फिर युद्ध होते ही नहीं है, न ही है अफ़सर और सैनिक, सब अपने अपने घर चले गए। फिर क्या होगा? हाँ, होगा क्या ऐसी हालत में? मैं जानता हूँ, शूल्गविच इसका जवाब मुझे यूँ देगा, “ तब हमारे यहाँ अचानक घुस आएंगे और हमारी ज़मीन, हमारे घर छीन लेंगे, खेतों को रौंद देंगे, हमारी पत्नियों और बहनों को उठा ले जाएंगे।” और दंगा करने वाले? समाजवादी? क्रांतिकारी?।ओह, नहीं, यह सच नहीं है। आख़िर सारी, सारी मानवता ने कह दिया है: ख़ून ख़राबा नहीं चाहते। तब हम पर आक्रमण और ज़बर्दस्ती कौन करेगा? कोई भी नहीं। होगा क्या फिर? या, हो सकता है कि उस हालत में सब समझौता कर लेंगे? एक दूसरे के सामने से हट जाएंगे? आपस में बांट लेंगे? एक दूसरे को माफ़ कर देंगे? हे भगवान, हे भगवान, होगा क्या?

अपने ख्यालों में डूबे हुए रमाशोव ने ध्यान ही नहीं दिया कि कब गैनान हलके पैरों से पीछे से उसके पास आया और अचानक कंधे के ऊपर से अपना हाथ आगे बढ़ा दिया। वह कांप गया और भयभीत होकर हौले से चीख़ा, “ क्या चाहिए तुझे, शैतान!।”

गैनान ने मेज़ पर कत्थई रंग का कागज़ का पैकेट रख दिया।


“तेरे लिए!” उसने प्यार और अपनेपन से कहा, और रमाशोव को महसूस हुआ कि वह उसकी पीठ के पीछे दोस्ताना ढंग से मुस्कुरा रहा है। “तेरे लिए सिगरेट। कश लगा ले!”

रमाशोव ने पैकेट की ओर देखा। उस पर छपा था: सिगरेट “त्रुबाच”, मूल्य 3 कोपेक, 20।

 “ये क्या है? किसलिए?” उसने अचरज से पूछा। “कहाँ से लाए?”


देख रहा था, तेरे पास सिगरेट नहीं है। अपने पैसे से खरीदी। लगा कश, मेहेरबानी करके, पी। कोई बात नहीं है। तुझे भेंट दे रहा हूँ।”

गैनान घबरा गया और तीर की तरह कमरे से बाहर भाग कर धड़ाम् से दरवाज़ा बन्द कर लिया। लेफ्टिनेंट ने सिगरेट पीना शुरू किया। कमरे में जलती हुई लाख की और जले हुए परों की बू फैल गई।


ओह, मेरी जान! भावविभोर होकर रमाशोव ने सोचा, मैं उस पर ग़ुस्सा करता हूँ, चिल्लाता हूँ, उसे शाम को न सिर्फ मेरे जूते बल्कि मोज़े और पतलून भी उतारने पर मजबूर करता हूँ। और वह, देखो, मेरे लिए अपनी फौजी की छोटी सी तनख़्वाह से बचे खुचे पैसों से सिगरेट ख़रीद कर लाया है। “कश लगाओ, मेहेरबानी करके!” किसलिए?

वह फिर से खड़ा हो गया और पीठ पीछे हाथ रखकर कमरे में चक्कर लगाने लगा।

वे सौ आदमी है हमारी कम्पनी में और उनमें से हरेक है एक जीता जागता आदमी, अपने विचारों समेत, भावनाओं समेत, अपने विशिष्ठ स्वभाव समेत, जीवन के अपने अनुभव समेत, अपनी पसंद नापसंद समेत। क्या मुझे उनके बारे में थोड़ी सी भी जानकारी है? नहीं कुछ भी नहीं, सिवाय उनकी शक्लों के। ये है दाईं ओर से: सोल्तीस, र्‍याबोशाप्का, विदेनेयेव, ईगरोव, याशिशीन। भूरेभूरे, एक से चेहरे। मैंने उनकी आत्मा को छूने के लिए क्या किया है, अपने ‘मैं’ को उनके ‘मैं’ से मिलाने के लिए क्या किया है? कुछ भी नहीं।

रमाशोव को अचानक देर शिशिर की एक धुंधली शाम की याद आ गई। कुछ अफसर, जिनमें रमाशोव भी था, मेस में बैठे वोद्का पी रहे थे, जब नवीं कम्पनी का सार्जेंट मेजर गुमेन्यूक भागा भागा अंदर आया और हाँफते हुए अपने कम्पनी कमांडर से चिल्लाकर बोला, “ हुज़ूर, नौजवानों को हाँक कर ले आए है!।”

हाँ, सचमुच उन्हें हाँककर ही लाया गया था। वे कम्पनी के आँगन में खड़े थे, एक झुंड में, बारिश में भीगते हुए, अविश्वासपूर्वक कनखियों से देखते हुए, जैसे डरे हुए और आज्ञाकारी जानवरों का एक रेवड़ हो। मगर उन सबके चेहरे कुछ ख़ास तरह के थे। शायद ऐसा उनके वस्त्रों की विविधता के कारण प्रतीत हो रहा। यह, शायद लुहार है, उनके निकट से गुज़रते हुए उनके चेहरों को ग़ौर से देखते हुए रमाशोव ने उस समय सोचा था, और यह, निश्चय ही मस्त मौला और बढ़िया हार्मोनियम बजाने वाला होगा। यह फुर्तीला, साक्षर और कुछ बदमाश सा, जल्दी जल्दी बोलने वाला कहीं यह पहले वेटर तो नहीं था? और यह बिल्कुल ज़ाहिर था कि उन्हें वाक़ई में हाँक कर लाया गया था, कि कुछ दिन पहले ही उन्हें शिकायत करते हुए, रोते पीटते हुए उनकी औरतों ने बिदा किया था और यह भी ज़ाहिर था कि वे स्वयँ भी साहस बटोरते हुए अपने आप को मज़बूत बना रहे थे ताकि रंगरूटों की भर्ती की इस पियक्कड़ आपाधापी में रो न पड़ें, मगर एक साल बाद वे खड़े है इस लंबी, मृतप्राय क़तार में भूरे , बेचेहरा, काठ जैसे सिपाही! वे जाना नहीं चाहते थे। उनका ‘मैं’ नहीं चाहता था। हे भगवान, इस ख़ौफ़नाक ग़लतफ़हमी की वजह क्या थी? इस गांठ का सिरा कहाँ है? या फिर यह वही मुर्ग़े की आपबीती वाली बात है? मुर्गे का सिर मेज़ के पास लाया जाता है वह चोंच मारने लगता है, विरोध करता है। मगर खड़िया से उसकी नाक पर निशान बना दो और फिर आगे बढ़ते हुए मेज़ पर भी निशान बना दो, तो वह सोचने लगता है कि उसे बांध दिया गया है और वह बिना पर फड़फड़ाए, आँखें बाहर को निकाले, किसी अनजान भय से सहमा हुआ बैठा रहता है।

रमाशोव पलंग के पास गया और धम्म् से उस पर लेट गया।

तो, ऐसी हालत में मुझे क्या करना चाहिए? संजीदगी से और लगभग कड़वाहट से उसने अपने आप से पूछा। हाँ, मुझे करना क्या चाहिए? क्या फौजी नौकरी छोड़ दूँ? मगर तुम्हें आता क्या है? तुम कर क्या सकते हो? पहले स्कूल, फिर कैडेट स्कूल, मिलिट्री अकाडेमी, अफ़सरों की संकुचित ज़िन्दगी।क्या तुम्हें पता है कि संघर्ष क्या है? ज़रूरत क्या है? नहीं, तुम्हें हर तैयार चीज़ पर जीने की आदत पड़ गई है, किसी स्कूली लड़की की तरह यह सोचते हुए कि ‘फ्रेंच रोल’ पेड़ों पर लगते है। कोशिश तो करो, निकल जाओ। तुम्हें चोंचें मारेंगे, तुम नशे में ड़ूब जाओगे, आज़ाद ज़िन्दगी की राह में पहले ही क़दम पर तुम गिर पड़ोगे। रुको। तुम जिन अफ़सरों को जानते हो उनमें से क्या कोई भी अपनी मर्ज़ी से फौजी नौकरी छोड़ कर गया है? नहीं, कोई नहीं। सभी अपनी अपनी अफ़सरी से चिपके बैठे है, क्यों कि वे और किसी काम के लायक है ही नहीं, कुछ और जानते ही नहीं है। और अगर वे चले भी जाएँ, तो उन्हें अपनी चीकट आर्मी कैप लिए भीख मांगते देखा जा सकता है: ‘ मेहेरबानी करो जानते है, इज़्ज़तदार रूसी अफ़सर।’ आह, मैं आख़िर करूं तो क्या करूं! मैं क्या करूं!

 

“क़ैदी, क़ैदी!” खिड़की के नीचे से महिला की रमाशोव पलंग से उछला और खिड़की की ओर भागा। आंगन में शूरच्का खड़ी थी। वह धूप के कारण, आँखों के कोनों पर हथेलियाँ रखे, ताज़ातरीन, मुस्कुराता हुआ चेहरा खिड़की के काँच के नज़दीक लाकर गाती हुई सी आवाज़ में बोली, “ इस ग़रीब क़ैदी को दो।”


रमाशोव हत्था पकड़ कर खिड़की खोलने ही वाला था, मगर तभी उसे याद आ गया कि भीतरी खिड़की को अभी हटाया नहीं गया है। तब अचानक खुशी के झोंके में उसने पूरी ताक़त से भीतरी खिड़की की चौखट को अपनी ओर खींच लिया, रमाशोव के सिर पर चूने की पपड़ी और सूखी पेंट बिखेरते हुए वह चरमराहट के साथ खुल गई। सफेद फूलों की  नर्म, नाज़ुक, प्यारी सी खुशबू से सराबोर ठंडी हवा का झोंका कमरे में घुस आया।

ऐसे! इस तरह से आज़ादी का रास्ता ढूंढ़ना चाहिए! रमाशोव के दिल में हँसती हुई, विजयी आवाज़ गूँजी।


 “रोमच्का! दीवाने! क्या कर रहे है आप?”

उसने खिड़की से बढ़ाया हुआ छोटा सा, कत्थई दस्ताने में कस कर लिपटा हुआ उसका हाथ पकड़ लिया, और निड़रता से उसे चूमने लगा। पहले ऊपर से फिर नीचे से, बटन के ऊपर वाले छेद से हथेली के मोड़ पर। पहले कभी उसने ऐसा नहीं किया था, मगर शूरच्का अनजाने ही शायद उत्तेजित साहस की उस लहर के सामने, जो अचानक ही उसके भीतर उमड़ आई थी समर्पित, उसके चुंबनों का विरोध न कर सकी और बस विस्मय से उसकी ओर देखते हुए मुस्कुराती रही।


 “अलेक्सान्द्रा पेत्रोव्ना! आपका शुक्रिया मैं कैसे अदा करूँ? मेरी जान!”


 “रोमच्का, ये तुम्हें हो क्या रहा है? किस बात से इतने ख़ुश हो रहे हो?” उसने हंसते हुए, मगर एकटक, उत्सुकता से रमाशोव को देखते हुए कहा। 


“आपकी आँखें चमक रही है। रुकिये, मैं आपके लिए मीठी ब्रेड लाई हूँ, जैसे क़ैदी के लिए लाते है। आज हमारे यहाँ सेबों की बढ़िया, मीठी पेस्ट्रियाँ बनी है। स्तेपान, बास्केट यहाँ लाओ।


उसने अपने हाथ से उसका हाथ छोड़े बग़ैर उसकी ओर चमकती, प्रेमपूर्ण आँखों से देखा।उसने फिर भी इसका विरोध नहीं किया, और शीघ्रता से बोला, “ आह, काश आप जानतीं कि मैं पूरी सुबह क्या सोचता रहा।काश, आप सिर्फ जानतीं! मगर, इस बारे में बाद में।”


 “हाँ, बाद में।देखो मेरा पति और मालिक आ रहा है। हाथ छोड़िए। कैसे अजीब हो रहे है आज आप, यूरी अलेक्सेयेविच। अच्छे भी लग रहे है"


निकोलायेव खिड़की के पास आया। उसने नाक भौंह चढ़ा ली और बड़े रूखे से रमाशोव का अभिवादन किया।

“चलो, शूरच्का , चलो,” वह जल्दी मचाने लगा। 


“ख़ुदा ही जाने यह सब क्या है। आप दोनों ही, शायद, दीवाने है। कमांडर तक ख़बर पहुँचेगी न जाने क्या गुल खिलेगा! वह क़ैद में है। अलबिदा, रमाशोव। घर पर आइयेगा।”


 “आइये, यूरी अलेक्सेयेविच,” शूरच्का ने भी दुहराया।


वह खिड़की से दूर हट गई, मगर फौरन ही मुड़ कर, फुसफुसाते हुए जल्दी जल्दी बोली, “सुनो, रोमच्का: नहीं, सच में, हमें भूलियेगा नहीं। एक ही तो आदमी है, जिससे मैं दोस्तों की तरह बात कर सकती हूँ, और वह आप है। सुनते है? बस, इस तरह आँखें फाड़ फाड़ कर मेरी ओर देखना बंद कीजिए। वर्ना, मैं आपको देखना भी न चाहूँगी। प्लीज़, रोमच्का, ख़्याली पुलाव पकाना छोड़ दो। अभी तो आप मर्द नहीं है"


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