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हिम स्पर्श 52

हिम स्पर्श 52

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“जीत, अभी ना जाओ। कुछ क्षण और बैठो मेरे समीप” वफ़ाई ने जीत का हाथ पकड़ लिया। जीत ने वफ़ाई के हाथ को देखा, वफ़ाई के मुख के भावों को देखा तथा घात देकर अपना हाथ छुड़ा लिया। जीत दूर चला गया।


वफ़ाई ने घात का अनुभव किया, स्वप्न से जाग गई। निद्रा टूट गई। वफ़ाई ने आँखें खोल कर देखा। वह बंध कक्ष में अपनी शैया पर थी। कक्ष में चारों तरफ देखा। वहाँ झूला भी नहीं था, जीत भी नहीं था। प्रति दिन की भांति वह अकेली ही थी।


वफ़ाई ने गहरी सांस ली, आँखें बंध कर ली, ”सुंदर स्वप्न पूरा हो गया। मीठा स्वप्न पंखी बनकर उड़ गया” वह खड़ी हुई, खिड़की से बाहर देखा। “यहाँ अभी भी रात्रि ही है। प्रभात कहीं नहीं” वह उठी, द्वार तक दौड़ गई। “जीत तो झूले पर निद्राधीन है। सब कुछ वैसा ही है। स्वप्न में देखा था वैसा कुछ भी नहीं। स्वप्न। मन को लुभाने वाला स्वप्न हाथों से कहीं छूट गया”


वफ़ाई स्वयं से बातें करनी लगी।


“वफ़ाई, वह केवल स्वप्न था। तुम्हारा स्वप्न कभी पूरा नहीं होगा”


“स्वप्न ही था किन्तु सुंदर था। सत्य जैसा प्रतीत हो रहा था। श्रद्धा रखो, एक दिवस यह स्वप्न पूरा होगा”


“मुझे तो कोई संकेत नहीं मिल रहे। तुम इस छोकरे के पीछे समय व्यर्थ ही खो रहे हो। स्वप्न सदैव स्वप्न ही रहते हैं। वास्तविकता से उसका कोई संबंध नहीं होता है”


“प्रत्येक वास्तविकता प्रथम तो एक स्वप्न ही होता है। केवल स्वप्न में ही यह शक्ति है कि वह उसे वास्तविक बना सके। मेरा स्वप्न एक दिवस सत्य होगा। कहते हैं ना कि प्रभात में देखे स्वप्न सच्चे हो जाते हैं। ऐसा ही होगा”


“किन्तु मुझे तो निकट भविष्य में ऐसे कोई संकेत नहीं मिल रहे”


“वह क्षण के बीज अभी अपने गर्भ में है, अंकुरित हो रहे हैं। उसे उगने में समय लगेगा। मैं उस की प्रतीक्षा करूंगी। मैं समय व्यर्थ नहीं खो रही, मैं तपस्या कर रही हूँ”


“ओह, तो तुम तपस्विनी हो?”


“चलो फिर कभी बात करूंगी तुम से। मेरे जागने का समय हो रहा है। नींबू सूप तैयार करना है। प्रभात के सूर्य का स्वागत करना है। पंछियों से बाते करनी है। प्रभात के क्षणों का आनंद लेना है। नमाज करनी है। जीत से बातें करनी है।


वफ़ाई उठी। सूरज आलसी बालक की भांति धीरे धीरे उग रहा था। वफ़ाई नमाज में व्यस्त हो गई।


“या अल्लाह, तुम्हारी अनुकंपा, जो मुझे सदैव मिलती रही है, के लिए मैं धन्यवाद करती हूँ। किन्तु मैं नमाज छोड़ रही हूँ। नमाज से भी पवित्र कोई बात है, वह है प्रेम। प्रेम ही सर्वोच्च दैवी अनुभव है इस धरती पर। प्रेम की मेरी जो झंखना है वह मुझे जीत में दिख रही है। मैं नहीं जानती कि मैं जीत से प्रेम प्राप्त कर सकूँगी अथवा नहीं। किन्तु अब से प्रेम ही मेरे लिए नमाज है। प्रेम ही प्रार्थना है। प्रेम ही पूजा है मेरे लिए। नमाज तो दिवस में पाँच बार ही करती रही किन्तु प्रेम तो मैं दिवस तथा रात्रि करती रहूँगी। प्रत्येक क्षण मेरी प्रेम से सभर होगी, यही मेरी प्रार्थना होगी”


“वफ़ाई, तुम्हें विश्वास है कि वह तुम्हारी प्रार्थना सुनेगा।? तुम व्यर्थ ही...”


“अल्लाह, मुझे तुम पर विश्वास नहीं है। तुम सुनते हो मेरी प्रार्थना? तुम स्वीकार करते हो? कब? कैसे? कहाँ? कोई नहीं जानता। फिर भी नि:सहाय मनुष्य तुम पर अपना समय व्यर्थ ही खोता है ना? मुझे तो यह भी ज्ञात नहीं कि तुम हो अथवा नहीं। तुम सत्य हो अथवा भ्रांति?”


“प्रेम भ्रांति के सिवा कुछ नहीं। कोई उसे प्राप्त नहीं कर सका”


“प्रेम यदि भ्रांति है तो तुम से अधिक सत्य से भरी भ्रांति है। किसी दिवस प्रेम को पाने की संभावना है किन्तु कोई नहीं जानता कि तुम्हें कैसे प्राप्त किया जा सकता है। आज तक तुम किसी को नहीं मिले”


“तुम मेरे अस्तित्व पर संदेह कर रही हो, वफ़ाई”


“अवश्य। मुझे तुम्हारे अस्तित्व पर संशय है। किसने बनाया तुम्हें? हमने। हमने एक भ्रांति का सर्जन किया और उसे भगवान, ईश्वर, अल्लाह जैसे नाम दे दिये। मैं तुम में विश्वास नहीं रखती। अत: यह मेरी अंतिम नमाज है। यह हमारा अंतिम मिलन है, अंतिम वार्तालाप है”


“मैं सत्य हूँ, भ्रांति नहीं। मेरे पर श्रद्धा रखो। “


“तुम अपना अस्तित्व सिद्ध कर दो। तुम जीस दिवस यह सिद्ध कर दोगे उसी दिवस मैं तुम्हारे पास लौट आऊँगी। मैं उसी दिवस नमाज करूंगी। तब तक...”


अल्लाह के साथ वफ़ाई के वार्तालाप को सुने बिना ही जीत वफ़ाई को निहार रहा था।


जीत ने चित्राधार पर केनवास शीघ्रता से बदल दिया। रंगों को मिश्रित किया, केनवास पर तूलिका के कुछ प्रहार किए और एक चित्र रच दिया। फिर झूले पर जा बैठा।


वफ़ाई ने अपने हाथ पसार कर अल्लाह का धन्यवाद किया। अंतिम नमाज पूर्ण की। वह प्रसन्न थी। उसने जीत को स्मित दिया।


वह स्मित साधारण नहीं था, अलौकिक था। भिन्न तेज, भिन्न आभा वफ़ाई के मुख पर थी। जब मनुष्य अपने ही ईश्वर से लड़ता है, तर्क करता है तब उसके मुख पर दैवी आभा प्रकट हो जाती है। वही तेज वफ़ाई के मुख पर था। जीत ने भी वफ़ाई को स्मित दिया।


वफ़ाई ने केनवास को उड़ती आँखों से देखा और दूर चली गई। उसकी उस उड़ती दृष्टि ने किसी आकृति को पकड़ लिया था। वह केनवास पर लौटी, फिर से उसे देखा। वह उस चित्र को देखती ही रह गई।


नमाज करती हुई छोकरी का चित्र सामने था। वह स्थिर सी रुक गई, जैसे कोई प्रतिमा हो।


“यह तो अभी अभी रचा गया है। कितनी सुंदर रचना है यह। जैसे कोई छोकरी आँखों के सामने ही नमाज कर रही हो। कितना सुंदर, कितना वास्तविक! किन्तु यह छोकरी तो, अरे, यह तो मैं ही हूँ। यह तो मेरा ही चित्र है”


वफ़ाई जीत की तरफ मुड़ी,”हे चित्रकार, तुमने तो मेरा ही चित्र मेरे सामने रख दिया। इतना सुंदर, इतना मनोहर। जीत, मैं तुम्हें लाख लाख धन्यवाद देती हूँ” वफ़ाई प्रसन्न हो गई। वह पुन: चित्र को देखने लगी, चित्र में खो गई।


जीत, झूले पर शांत बैठा था। वफ़ाई की क्रिया एवं प्रतिक्रिया, आनंद एवं आभा को देख रहा था। उसने वफ़ाई के आनंद में विक्षेप नहीं डाला।


वफ़ाई अपने ही चित्र के मोह में बंधी रही लंबे समय तक। सूर्य क्षितिज के समीप आ चुका था किन्तु अभी उगा नहीं था। वह धीरे धीरे अपनी किरणें जुटा रहा था। पंछियों की एक टोली गीत गाती हुई आ गई, जीत के आसपास बैठ गई, कलरव करने लगी।


जीत झूले से उठा, पंछियों के साथ खेलने लगा। वफ़ाई ने खाली झूले को देखा और उस पर बैठ गई। जीत वफ़ाई से एकाध हाथ के अंतर पर ही था, पंछी भी। जीत के समीप होने का अनुभव करने लगी, वफ़ाई।


“जीवन के यह क्षण अमूल्य है” वफ़ाई उन क्षणों को जीने लगी।


वफ़ाई ने नींबू सूप बनाया, दोनों ने साथ में उसे पिया और अपने अपने कार्य पर लग गए। दोनों चित्र रचने लगे।


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