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माटी की सुगंध

माटी की सुगंध

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नमिता चौधरी ने ई-मेल साइट खोली ही थी कि दो मैसेज दिखाई दिये। एक पुत्री निवेदिता का तथा दूसरा शिवानी का। निवेदिता के मैसेज में कोई खास नहीं था। उसने अपनी दो वर्ष की बेटी की फोटो भेजी थी, अक्सर वह मेल से उसकी फोटो भेजती रहती थी जिसे वह प्रिंट आउट करके एलबम में सजा लेती थी। चार वर्ष से वह कनाडा में थी, वहीं उसकी पुत्री हुई....अभी तक उन्होंने उसे देखा भी न था।

दूसरा मैसेज खोला पढ़ते ही दिल बेचैन हो उठा। क्या निनाद का एक्सीडेंट हो गया...? सिर पर चोट आने के कारण उसे हफ्ते भर अस्पताल भी रहना पड़ा कुछ स्टिचेज भी आई हैं....तभी इतने दिनों से उसका न कोई फोन आया और न ही कोई मैसेज। उसने बात करने का प्रयत्न किया पर उसने उठाया ही नहीं। शायद वह एक्सीडेंट की बात बताकर उसे परेशान नहीं करना चाहता था किंतु उसे यह पता नहीं था कि उसका फोन भी न उठाना उसे और परेशान कर रहा था। 


कुछ दिनों से वह बेचैनी महसूस कर रही थी पर उसे लग रहा था कि उसकी बेचैनी का कारण उसका अकेलापन है पर नहीं उसकी बेचैनी का कारण उसका अकेलापन नहीं निनाद के साथ घटी घटना थी। पुत्र या पुत्री विश्व के किसी भी कोने में क्यों न हो, कुछ भी अनहोनी होने पर माँ को अपनी आंतरिक शक्ति, छठी इंद्रिय के द्वारा आभास हो ही जाता है। चाहे वे बतायें या नहीं....पास होते तो तुरंत चले जाते लेकिन इतनी दूर जाना भी तो संभव नहीं है।

कई दिनों से कोई मैसेज न आने के कारण नमिता सोच रही भी कि वे अभी वह घूम कर नहीं आये होंगे। पिछले वीक उन्होंने लिखा था कि वे एक हफ्ते के लिये स्विटजरलैंड जा रहे हैं। पता नहीं और किसको कितनी चोट आई होगी, कैसे क्या हुआ कुछ नहीं लिखा था। लिखने के लिये समय नहीं था तो कम से कम फोन ही कर दिया होता।


नमिता को याद आया नन्हा निनाद...बीमार होने पर उसे क्षण भर के लिये भी उठने नहीं देता था। एक बार जब वह लगभग सात-आठ वर्ष का था, उसे बुखार आ गया था। उसे अतिआवश्यक कार्य था, अतः वह उसे सुलाकर नौकर को आवश्यक हिदायतें देकर चली गई। यद्यपि एक घंटे में वापस भी आ गई किंतु इसी बीच निनाद की आँख खुलने पर उसने वह हाय तौबा मचाई कि नौकर भी घबरा गया, उसके आने पर निनाद बिगड़ता हुआ बोला था...

"आपको हमारी कोई परवाह नहीं है तभी तो घूमने चली गई, आप हमसे बात नहीं कीजिएगा....न ही हमें हाथ लगाइयेगा।"


सचमुच काफी देर तक उसने स्वयं को छूने भी नहीं दिया था। देवेश भी उस दिन काफी बिगड़े थे और आज चाह कर भी वह उसके पास नहीं जा सकती।

नमिता को आज भी याद है जब निनाद ने विदेश जाने की बात की थी तब उसने अपने अकेलेपन की दुहाई देते हुए जाने से मना किया था तब उसने कहा था,"माॅम, आज दूरी कोई मायने नहीं रखती, यदि पैसा है तो कोई कभी भी कहीं भी आ जा सकता है।"


दो वर्ष हो गये हैं पर किसी न किसी काम का बहाना कर वह आज तक नहीं आ पाया है। पहले तो हर हफ्ते ही फोन पर बात कर लेता था किन्तु जब से कंप्यूटर लिया है, फोन पर बहुत कम बात होती हैं....संदेशों का आदान प्रदान ई-मेल के जरिए ही होता रहता है, यहाँ तक कि वह आवाज़ सुनने को भी तरस जाती है।

जब वह बहुत बेचैन हो जाती है तब स्वयं ही उनसे बात कर लेती है। उसकी व्यग्रता देखकर देवेश हँसते....उन्हें समझाती भी तो समझाती कैसे? माँ के हृदय में चलते मंथन को वह भला कैसे समझते? स्त्री जितनी पति के लिये चिंतित रहती है उतनी ही संतान के लिये। दोनों में किसी को भी छोड़ना नहीं चाहती। दूर से अब फोन का ही तो सहारा रह गया है मिल नहीं पाते तो कम से कम उनकी आवाज़ सुनकर कुछ समय के लिये उन्हें अपने आस-पास तो महसूस कर लेती हूँ।


नमिता ने निनाद से फोन पर बातें करना चाहा तो किसी ने उठाया ही नहीं, मैसेज आनसरिंग मशीन पर छोड़ दिया। देवेश किसी केस के सिलसिले में दो दिन के लिये बाहर गये थे, उनको फोन मिलाया तो पता चला कि वे निकल चुके हैं।

चार घंटे बीतने के पश्चात् भी अभी तक निनाद का फोन नहीं आया तो मन परेशान हो उठा ... वह बरामदे में चहलकदमी करने लगी। यह उसकी पुरानी आदत थी। बच्चे कहीं बाहर गये हों या उन्हें आने में जरा भी देर हो तो वह बार-बार उठकर बाहर देखती या जब तक नहीं आ जाते बाहर बरामदे में ही घूमती रहती।

देवेश उसकी इस आदत का मज़ाक यह कहकर बनाते कि क्या तुम्हारे इस तरह बाहर खड़े रहने से बच्चे जल्दी आ जायेंगे....शायद वह अपनी जगह ठीक हों पर पर वह आदत से मजबूर थी। 


कुछ दिन पूर्व ही बहू शिवानी का ई मेल आया था, लिखा था,"मम्मीजी, मुझे एक अच्छा जाॅब मिल गया है, मेरा तथा निनाद का आँफिस पास ही है अतः मैंने ज्वाइन कर लिया है। जाते समय हम दिव्या को क्रेच में छोड़ देते हैं तथा लौटते हुए ले लेते हैं। यहाँ के क्रेच बहुत अच्छे हैं, बच्चों की प्रत्येक सुविधा को देखकर उनका निर्माण किया जाता है, एकदम घर जैसा ही वातावरण ही मिलता है, अतः कोई असुविधा नहीं हो रही है।"


बहु के मेल को पढ़कर लगा कि आज के युवा अपने अस्तित्व को लेकर इतने जागरूक हो गये हैं कि उन्हें अपने मासूम बच्चे के मनोभावों को कुचलने में भी उन्हें कोई संकोच नहीं होता....भला क्रेच में भी घर जैसा वातावरण मिल सकता है…!! दिव्या का ख्याल आया, जब वह गई थी तब छह महीने की थी, अब तो खूब बातें करती होगी। न जाने क्रेच में उसे कैसा लगता होगा ?


नमिता को महसूस हो रहा था कि आज की स्थिति और उनके समय की स्थिति में कितना अंतर आ गया है। उनके समय में लोग अपने लिये नहीं वरन् दूसरों के लिये जीते थे। दूसरों की खुशी के लिये अपनी खुशी, अपने हितों का बलिदान करने में भी नहीं हिचकते थे तभी तो देवेश की माँ के पैरालिसिस होने पर देवेश के पिताजी के आग्रह पर उसके पिताजी ने उसका हाथ देवेश के हाथ में सौंप दिया था। देवेश और उसके पिताजी दोनों एक ही आँफिस में काम करते थे तथा अच्छे मित्र थे। देवेश उस समय लाॅ कर रहे थे तथा वह इंटर में थी....दोनों ही पढ़ना चाहते थे पर माँ पिताजी की आज्ञा के सामने दोनों ने ही सिर झुका दिया था।


वस्तुतः देवेश के पिताजी ने देवेश का विवाह इसलिये शीघ्र किया था क्योंकि उन्हें लगा था कि घर में बहू आ जाने से पत्नी की बीमारी से हुई अव्यवस्था में न केवल सुधार आयेगा वरन् पत्नी तथा दो छोटी पुत्रियों की देखभाल भी उचित रूप से हो पायेगी। नमिता ने अपनी जिम्मेदारियों को तहे दिल से स्वीकारा था तथा किसी को भी शिकायत का मौका नहीं दिया था और न ही अपनी परेशानियों का जिक्र कभी देवेश से किया था।


घर की जिम्मेदारियों के कारण उसे उस समय अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ी थी लेकिन देवेश को घर की चिंताओं से मुक्त कर सदा पढ़ने के लिये प्रेरित करती रही थी। उसकी सहनशीलता और धैर्य का ही परिणाम था कि देवेश जुडीशियल मजिस्टफेट की परीक्षा में सफल रहे थे....उनकी सफलता से प्रसन्न होकर उसके श्वसुर ने उसे ढेरों आशीष देते हुए कहा था....

"पत्नी के सत्कर्मो....सद्गुणों का प्रभाव तो पति की सफलता में पड़ना ही था। पति की सफलता में पत्नी का हाथ होता है....आज तुमने एक बार फिर सिद्ध कर दिया है।"


उससे तथा उसके धीर गंभीर स्वभाव से वह काफी प्रभावित थे। उनके अनुसार उसके कारण ही उनकी गृहस्थी सुचारू रूप से चल पाई थी....खुशी तो उन्हें इस बात की थी कि उन्हें अपने निर्णय पर पछताना नहीं पड़ा था।

नमिता की नन्दें मीरा और नीरा उस समय मात्र आठ और दस वर्ष की थीं। उनकी समस्याओं को उसने कभी भाभी बनकर तो कभी मित्र बनकर सुलझाया था.। यहाँ तक कि विवाह पर आवश्यकता पड़ने पर उसने अपने गहने भी सहर्ष दे दिये थे....प्रतिदान में उसे उनसे उतना ही मान-सम्मान और प्यार दुलार मिला था।


विवाह में गहने लेते समय श्वसुर ने कृतज्ञता से कहा था,‘ बेटा, जब भी स्थिति सुधरेगी, तुझे गहनों से लाद देंगे।’

"पिताजी हमें तो आपका प्यार और आशीर्वाद ही चाहिए....गहनों और कपड़ों का क्या, वह तो जितने भी हों कम ही हैं।" उसने नम्रता से उत्तर दिया था।

"काश, ऐसी बेटी समान बहू सबको मिले तो हर घर ही स्वर्ग बन जाए।" प्रेम से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा था लेकिन लाख छिपाने पर भी वह अपनी भर आई आँखों को उससे छिपा नहीं सके थे।


लेकिन उनका प्यार और आशीर्वाद ज्यादा दिन कहाँ रह पाया था। छोटी ननद नीरा के विवाह के कुछ दिन पश्चात् ही उनका सीवियर हार्ट अटैक में निधन हो गया। माँजी तन से तो पहले ही लाचार थी अब मन से भी बुरी तरह टूट गई। बस इतना संतोष था कि पिताजी अपनी पूरी जिम्मेदारियाँ पूरी कर गये थे....किंतु यह भी एक शाश्वत सत्य है कि बेटा बहू चाहे जितनी भी सेवा कर लें, पति का स्थान तो नहीं ले सकते। पहले तब भी व्हील चेयर पर बैठकर अपना थोड़ा बहुत कार्य कर भी लेती थीं लेकिन अब तो वह बिस्तर से उठना ही नहीं चाहती थीं....शायद जीवन की लालसा ही समाप्त हो गई थी।

देवेश की पोस्टिंग बनारस होने के कारण पैतृक घर किराये पर उठाकर माँजी को भी अपने साथ ले आये। माँजी का अपनी जगह छोड़कर आने का बिल्कुल भी मन नहीं था किंतु वह इस अवस्था में अकेली कैसे रह पाती इसलिये साथ आ तो गई थी लेकिन सदा अनमयस्क रहतीं। थोड़ी-थोड़ी बात पर नाराज़ हो जाती तब उन्हें तथा देवेश को उन्हें बच्चों की तरह मनाना पड़ता था।


उसी समय निनाद का जन्म हुआ। उसकी दोनों ननदें बधाई देने आई थीं। विदाई के समय उन्होंने उन्हें यथाशक्ति साड़ी, अंगूठी तथा दोनों जीजाजी के लिये सूट का कपड़ा दिया था। दोनों रूठकर बोली, "भइया, यह क्या....? आज डैडी नहीं हैं तो हमारी इस घर में कोई इज़्ज़त ही नहीं रही। बस एक साड़ी और एक अंगूठी देकर ही मुक्ति पा ली, ससुराल में जाकर हम क्या मुँह दिखायेंगे ?"

उनकी बात सुनकर माँजी ने तुरंत अपनी चैक बुक निकाल कर दोनों को पचास-पचास हजार का चैक काटकर देते हुए कहा था,"दिल क्यों छोटा करती हो, अभी मैं हूँ न, मेरे रहते तुम्हें कभी शर्म से मुँह नहीं छिपाना पड़ेगा। इनसे जमाई राजा के लिये एक-एक चेन खरीद लेना।"


माँजी के शब्दों तथा चेहरे पर आये भावों को पढ़कर देवेश बहुत आहत हुए थे। क्रोध भी आया था माँ पर....आखिर जितनी हैसियत है उतना ही तो देंगे। प्रेम से जितना भी दिया जाए, ले लेना चाहिए, माँगकर लेना तो इंसानियत नहीं है। उन्हें समझाना तो दूर तुरंत चैक काटकर दे दिया....देना ही था तो बाद में किसी अन्य तरीके से दे देती या उन्हीं के हाथ से दिलवातीं। माँ से उनकी हालत छिपी तो नहीं है। उनकी पेंशन का एक चौथाई हिस्सा तो उनकी दवा में ही खर्च हो जाता है।

तब उसने ही देवेश की दुखती रग पर यह कहकर मलहम लगाया था कि आप दें या माँजी क्या फर्क पड़ता है किंतु आहत वह भी हुई थी। अनजाने में मन में दरार आती जा रही थी। अब वह पहले जैसी नहीं रही थी जितना भी करो सदा दोष निकालती ही रहती थीं । खासतौर पर तब, जब बेटियाँं आ जातीं। वे तीनों एक हो जाती तथा वह अलग-थलग पड़ जाती....दो बैड रूम के छोटे से घर में उन्हें ही बाहर ड्राइंगरूम में सोना पड़ता था। वे दोनों तो मेहमान थीं अतः उनकी सुख-सुविधा का ख्याल रखना हमारा कर्तव्य था।


माँ के अनपेक्षित व्यवहार से उसे दुखी देखकर देवेश कहते, "माँ बीमारी के कारण चिड़चिड़ी होती जा रही हैं....वैसे भी नीरा-मीरा कुछ समय के लिये आती हैं अतः ध्यान मत दो....बस अपना कर्तव्य किये जाओ।"

कर्तव्य तो वह कर ही रही थी पर माँ जी के बदलते स्वभाव को देखकर उसे लगता था कि उसका वर्षो का त्याग, तपस्या और बलिदान सब व्यर्थ होते जा रहे थे....वह चाह कर भी उनके व्यवहार में परिवर्तन का कारण समझ नहीं पा रही थी।


बात उन दिनों की है जब निवेदिता होने वाली थी...पता नहीं क्यों उस समय थोड़ा भी ज्यादा काम करने पर वह थक जाती थी। उसी समय माँजी की तबियत ज्यादा खराब हो गई, उनको देखने नीरा और मीरा आ गई।

एक दिन खेल-खेल में निनाद ने नीरा की पुत्री पल्लवी को गिरा दिया, एकदम बिफर पड़ी थी नीरा...."इस घर में मेरे और मेरे बच्चे की कोई कद्र नहीं है....भाभी में इतनी भी तमीज नहीं है कि बच्चे को कैसी शिक्षा दी जाए।"


आँफिस से उसी समय लौटे देवेश के कानों में नीरा के शब्द पड़े, अत्यंत आहत हुए थे तथा बोले, "नीरा, यह तुम्हारी वही भाभी हैं जिसे तुम कभी मेरी प्यारी भाभी....अच्छी भाभी कहते हुए नहीं थकती थीं। अपने सारे दुख-सुख आकर उसे बताती थी....यहाँ तक कि तुम्हारे विवाह में इसे अपने गहने देने में भी उसे संकोच नहीं हुआ था। पिछले कुछ वर्षो में ऐसा क्या हो गया कि तुम्हें उसमें दोष ही दोष नजर आने लगे हैं।"

"तब वह नई-नई इस घर में आई थीं, हमसे प्यार जताकर वह हमसे हमारी माँ छीनना चाहती थीं, गहने दिये तो क्या हुआ....कौन सा अहसान कर दिया....सभी की भाभियाँ करती हैं।"

"तुम्हारी भी ननद हैं, देखूँगा तुम अपनी ननद के लिये कितना करती हो?" बौखला कर कह उठे थे देवेश।


उस समय माँजी ने नीरा का पक्ष लेते हुए देवेश को ही बुरा भला कहा था, नीरा उसी दिन शाम की बस से दोबारा न आने की कसम खाते हुए चली गई। मीरा जब तक रही शीतयुद्ध जैसी ही स्थिति रही....यद्यपि नमिता ने अपनी तरफ से शीतयुद्ध को तोड़ने की हर संभव प्रयत्न किया पर असफल ही रही थी।तब उसे लगा था इंसान अपने अहंकार में कभी-कभी इतना स्वार्थी क्यों हो जाता है कि वर्षो का प्यार, स्नेह और अपनत्व को क्षण भर में भुलाकर दूसरों को तड़पने के लिये छोड़ देता है....माना उनके पास उसकी ससुराल के समान सुख-सुविधायें नहीं थी लेकिन घर तो वहीं था जिसमें उसने अपना बचपन गुजारा था।


मन में एक बार दरार पड़ जाए तो उसे मिटाना बहुत ही कठिन होता है, शायद यही कारण था कि वे दोनों आई भी तब आई जब माँजी ने भी इस संसार से संबंध तोड़ लिये। तेरहवीं भी नहीं हुई थी कि पिता की संपत्ति पर अपना हक जमाने लगी....आखिर पिता की संपत्ति पर लड़कियों का भी तो हक होता है। मीरा यद्यपि ज्यादा ही समझदार थी अब उसे लगने लगा था कि माता-पिता के बाद भाई-भाभी से ही मायका बनता है अतः वह नीरा के विचारों से सहमत नहीं हो पाई थी लेकिन देवेश ने दोनों को आमने सामने बिठाकर, पूरा हिसाब किताब दिखाकर, उसके दो भाग कर दिये थे, अपने लिये कुछ भी नहीं रखा था।


 मीरा के मना करने पर देवेश ने कहा था, "रूपया, पैसा जमीन जायदाद सब क्षणभंगुर है, स्थाई है तो सिर्फ प्यार, स्नेह और अपनत्व....जो पिताजी का है, वह हम सबका है....अतः बड़ा होने के नाते, मैं तुम दोनों में बराबर-बराबर बाँटता हूँ। मना मत करो वरना मुझे दुख होगा। एक आग्रह और है....हो सके तो बीती बातों को भुलाकर प्रेम और स्नेह के पक्के धागों में बंध जाओ क्योंकि यही धागे इंसान को बड़ी से बड़ी मुश्किलों को पार करने में सहायता देते हैं।"

देवेश की बातों को सुनकर नीरा भी पिघल गई तथा रोते हुए हिस्सा लेने से मना करने लगी तब देवेश ने उसके सिर पर हाथ पर फेरते हुए प्यार से कहा था,"रो क्यों रही है पगली, मैं कोई बँटवारा थोड़े ही कर रहा हूँ, बड़ा भाई होने के नाते पिता की संपत्ति का हिस्सा ही तो उपहार में दे रहा हूँ।"


देवेश के इस बलिदान से परिवार में फिर से एकता हो गई थी। प्रत्येक रक्षाबंधन तथा भइया दौज पर दोनों आती और हम से जो भी बन पड़ता, उनको देते। समय पर देवेश की तरक्की होती गई, रूतबे के साथ-साथ कार्यभार भी बढ़ता गया....आज वे हाईकोर्ट के जज के पद पर सुशोभित हैं।


फोन की निरंतर बजती घंटी ने उसकी विचारतंद्रा को भंग कर दिया। फोन अमेरिका से निनाद का था....,"ममा, हम ठीक हैं....चिंता की कोई बात नहीं है...मैं जानता था तुम चिंता करोगी....इसलिये मैंने शिवानी को मना किया था एक्सीडेंट के बारे में लिखने को पर उसने लिख दिया....टाँके भी कट गये हैं आज से हम दोनों ने आँफिस ज्वाइन कर लिया है।"


निनाद से बात कर दिल को सुकून मिला। तभी देवेश की कार के रूकने की आवाज़ सुनकर नौकर को चाय बनाने का आदेश देते हुए दरवाज़ा खोला, चेहरे पर छाई उदासी को देखकर वह पूछ बैठे, "क्या बात है, बहुत उदास लग रही हो ?"

निनाद को चोट लगने की बात सुनकर वह व्यथित हो उठे। रूपया, पैसा, नाम,शोहरत होते हुए भी इतनी दूर जा न पाने की विवशता उनके चेहरे पर स्पष्ट दिखाई दे रही थी....बात करनी चाही पर लाइन बिजी होने के कारण बात भी नहीं हो सकी।


"परेशान क्यों हो रहे हैं, वहाँ तो यहाँ से ज्यादा सुविधा है, फिर वह अकेला तो नहीं है, उसकी देखभाल के लिये शिवानी तो है ही।" उनको परेशान देखकर नमिता ने कहा।


"नमिता, मैं समझ नहीं पा रहा हूँ, हमारी युवा पीढ़ी विदेश की ओर क्यों भाग रही है....!! माना हमारे देश में विदेश की तुलना में सुख-सुविधायें कम हैं लेकिन इसका यह मतलब तो नहीं कि हम अपनी ही जमीन से नाता तोड़ लें।"

"आप इतना क्यों सोचते हो....सबकी अपनी-अपनी सोच है, वैसे भी जो जितना उड़ेगा, उतना ही सफल होगा।"

"उड़ना है तो उड़ो, लेकिन अपनी जमीन पर पर ही, इतनी भी छलांग न लगाओ कि अपने देखने के लिये भी तरसते रह जायें।"


तभी फोन की घंटी टनटना उठी, आवाज़ कमिश्नर के सेक्रेटरी की थी, "साहब आप कब आ रहे हैं, यहाँ सभी आपका इंतजार कर रहे हैं।"

"ओह, मैं तो भूल ही गया था, अभी आधे घंटे में आ रहा हूँ।"

"नमिता तैयार हो जाओ, हमें मंत्रीजी के सम्मान में दिये जा रहे भोज में सम्मिलित होने जाना है।"

"आप जाइये मेरा मन नहीं है।"


"मन तो मेरा भी नहीं है लेकिन कुछ सामाजिक बाध्यताओं का पालन तो करना ही पड़ेगा और फिर अभी तो तुम कह रही थीं कि निनाद ठीक है, चिंता की कोई बात नहीं है। चलो, तुम्हारा मन भी ठीक हो जायेगा....पूरे दिन घर में बोर होती रहती हो। न जाना भी उचित नहीं होगा....न जाने लोग क्या सोचें।"


उस समय नमिता को महसूस हुआ कि थोड़ी देर पूर्व जब देवेश चिंतित थे तब वह उन्हें समझा रही थी और अब उसके अनमयस्क होने पर वह उसे समझाने का प्रयास कर रहे हैं। सच है उम्र के इस पड़ाव में पति-पत्नी सिर्फ पति-पत्नी ही न रहकर दुख-सुख मे एक दूसरे को संबल प्रदान करते हुए एक अच्छे मित्र....सहचर बन जाते हैं।


नमिता जानती थी कि मना करने का कोई अर्थ नहीं है। यदि जाना है तो जाना ही है अतः तैयार होने चली गई किंतु विवशता भरे दिल ने सोचने को मजबूर कर दिया....यह नौकरी भी क्या चीज है... जब बड़े घर की आवश्यकता होती है तो छोटे घर मिलते है और जब बच्चों के व्यवस्थित होने के पश्चात् जब पति-पत्नी रह जाते हैं तब गाड़ी, बंगला,शोफर तथा सदा सेवा के लिये नौकर की भी सुविधा मिलने लगती हैं। नित होने वाली पार्टियों में जाना भी आवश्यक हो जाता है जबकि बढ़ती उम्र के साथ होती तरह-तरह की बीमारियों के कारण खाने-पीने में भी परहेज करना पड़ता हैं और जब खाने की उम्र होती है तब घर की जिम्मेदारियों के कारण न तो बाहर खाने और न ही घूमने जा सकते थे।


हल्की जरी के बाॅडर वाली आसमानी साड़ी पहनकर नमिता बाहर आई तो देवेश प्रसंशात्मक नज़रों से कहते हुए कह उठे,"कौन कह सकता है कि तुम दो जवान बच्चों की माँ हो ?"

"हटो, आप भी।" वाक्य अधूरा छोड़कर अचानक ही नमिता बीस वर्षीया युवती की तरह शर्मा उठी।


दो वर्ष ऐसे ही पंख लगाकर उड़ गये....देवेश की सेवानिवृत्ति का दिन भी आ गया। निनाद भी महीने भर की छुट्टी लेकर आया हुआ था। वह काफी दिनों से कह रहा था कि पापा आप हमारे साथ आकर रहिए....पर हमेशा काम का बहाना बनाकर टाल देते थे किन्तु इस बार उसके आग्रह को ठुकराने का कोई बहाना भी नहीं था। सदैव के लिये जाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था लेकिन देश-विदेश घूमने की इच्छा अवश्य थी अतः उसके साथ चले आये।


वहाँ पहुँचकर लगा कि सचमुच काफी विकसित देश है लेकिन फिर भी वहाँ की दौड़ती भागती जिंदगी से अपने देश की सीधी साधी जिंदगी अच्छी लगती। कम से कम लोगों के पास एक दूसरे के लिये समय तो है। कभी-कभी घर उन्हें घर नहीं होटल लगता जिसमें सुख-सुविधाओं की सारी चीजें तो उपस्थित थीं लेकिन उन्हें भोगने वाला कोई नहीं था। हफ्ते के पाँच दिन सुबह से शाम तक ऐसे दौड़ते भागते कि देखकर आश्चर्य होता था। छुट्टी के दो दिन में पूरे हफ्ते के बचे काम निबटाये जाते तथा शापिंग की जाती, कभी कहीं घूमने जाना होता तो वीक एन्ड में ही जाते। घर के जिन कामों को करना हम भारतीय अपने हाथों से करना निकृष्ट समझते हैं, उन्हें दोनों पति-पत्नी बिना किसी हीन भावना के निबटाते क्योंकि नौकर रूपी शख्स रखना उनके लिये कठिन ही है।


नन्ही दिव्या के कारण ही थोड़ा मन लगा हुआ था। दादा-दादी के कारण उसे क्रेच में रहना नहीं पड़ रहा था अतः वह खुश थी। कभी नमिता उसे लोरी गाकर सुलाती तो कभी कहानी सुनाकर। बच्ची के साथ बच्चा बनकर उन्हें असीम खुशी मिलती। सच कहें तो इस अनजान जगह में वही उनके जीने का सहारा थी। तभी उसकी छोटी से छोटी फरमाइश पूरी करने में वह न तो हिचकिचाते और न ही झुंझलाते। 


दीपावली आने वाली थी, नमिता ने पूजा का सामान मँगाने के लिये निनाद को लिस्ट पकड़ाई तो वह बोला, "माँ, यहाँ दिये घर में नहीं लगा पायेंगे और न ही पटाखे छुड़ा पायेंगे। इस अवसर पर छुट्टी न होने के कारण हम भारतीय सप्ताहांत में एक जगह इकट्ठे होकर त्यौहार मना लेते हैं तथा एक दूसरे से मिलना भी हो जाता है....हाँ घर में थोड़ी बहुत पूजा करना हो तो कर लेना।"

निनाद का उदासीन भाव से कहना नमिता को विचलित कर गया, कहीं कुछ दरक गया मन में। विदेशों में आकर जहाँ हम भारतीय वहाँ के रीति रिवाज अपनाते जा रहे हैं वहीं कहीं अपनी संस्कृति को भूलते तो नहीं जा रहे.। 


उसे याद आये वह दिन जब वह दीपावली के महीने भर पूर्व ही घर की साफ सफाई प्रारंभ हो जाती थी। वहीं हफ्ते भर पूर्व ही विभिन्न पकवान बनने प्रारंभ हो जाते थे। सबके लिये नये कपड़े बनते,मिट्टी के दिये के साथ-साथ बिजली के बल्बों से घर जगमगा उठता था। देवेश को पटाखे छुड़ाने का अत्यंत ही शौक था। निनाद और वह मिलकर न जाने कितने ही रुपये आतिशबाजी में उड़ा देते थे फिर भी अनंत को संतोष नहीं होता था....आज वही निनाद इतना उदासीन हो गया है।


नमिता को सदा ही पटाखों पर इतना पैसा खर्च करना अपव्यय लगता था, उसके विरोध करने पर देवेश कहते, "इंसान कमाता किस लिये है, ख़ुशियाँ प्राप्त करने के लिये ही न, और यदि मुझे इससे खुशी मिलती है तो मैं इसे अपव्यय नहीं समझता।"


बच्चों के जाने के पश्चात् भी वह हर वर्ष पटाखे खरीदते थे लेकिन वह स्वयं न छुड़ाकर अनाथाश्रम में दे आते। उनके द्वारा दिये पटाखों और मिठाई को पाकर बच्चों के चेहरे पर जो खुशी झलकती, वह उन्हें अत्यंत सुकून पहुँचाती थी। नमिता के कहने पर कभी फुलझड़ी छुड़ा लेते तथा कहते, "नमिता, अब तो रस्म ही निभानी है, अकेले रहकर भी कहीं दीवाली मनाई जाती है....!! वास्तव में दीपावली तो मन की उमंग, उल्लास, प्रेम और सद्भाव का त्यौहार है यदि मन में प्रसन्नता है तो हर दिन हर रात दीवाली है वरना दीवाली एक काली अँधियारी रात के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।"


यहाँ रहकर तो रस्म अदायगी भी नहीं हो पाई। मन व्यथित हो उठा था....अपने देश की मिट्टी की सुगंध उन्हें विचलित करने लगी थी....पीढ़ी अंतराल था या पीछे छूटे रिश्तों का अपनापन, वे दोनों ही वहाँ के वातावरण में सहज अनुभव नहीं कर पा रहे थे।


कुछ दिन बेटी दामाद...निवेदिता और विकास के पास जाकर रहे पर वहाँ भी वही भाग दौड़, मन उब गया था। पता नहीं इंसान पैसे के पीछे इतना पागल क्यों है....? भारत में तो एक कमाता है....चार खा लेते हैं पर यहाँ तो सब कमाते हैं। किसी के पास किसी के लिये समय ही नहीं है....बच्चे भी मैट्रिक करने के पश्चात् अपना खर्च स्वयं उठाने लगते हैं.... शायद यही नजरिया उन्हें अपनों से दूर ले जाता है। आखिर वापस लौटने का अपना फैसला सुना दिया। पहले तो निनाद और शिवानी ने रोकने की कोशिश की लेकिन उनकी ज़िद देखकर लौटने की टिकट बुक करा दी। 


जैसे-जैसे लौटने के दिन पास आते जा रहे थे उनकी प्रसन्नता बढ़ती जा रही थी। अपने सभी रिश्तेदारों तथा परिचितों के लिये उपहार ले जाना चाहते थे अतः हफ्ते भर तो वह एक डिपार्टमेंन्टल स्टोर से दूसरे डिपार्टमेंन्टल स्टोर के चक्कर काटते रहे फिर भी शापिंग पूरी होने का नाम नहीं ले रही थी।


एक दिन निनाद और शिवानी आँफिस गये हुए थे, अचानक देवेश बोले, "न जाने क्यों आँखों के आगे अँधेरा छाता जा रहा है। दिल घबरा रहा है। देखते ही देखते पूरा शरीर पसीने से नहा गया। निनाद को फोन किया किंतु जब तक कोई आ पाता....पंक्षी पिंजरा छोड़कर उड़ गया। वह चीख-चीख कर रोई पर इस बेगाने देश में कोई उनकी आवाज़ सुनने वाला ही नहीं था। निनाद और शिवानी के आने तक उनकी चीखें भी बंद हो गई थी। कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं थी। डाक्टर ने आते ही उन्हें मृत घोषित कर दिया। निनाद और शिवानी भी स्तब्ध रह गये थे। निवेदिता को फोन किया तो वह फोन पर ही रो पड़ी।


निनाद ने शवगृह की वैन को बुलाकर, अपने दो चार मित्रों के साथ अंतिम संस्कार कर दिया। सब कुछ कितना शांत और सहज था....न कोई सांत्वना देने वाला और न ही कोई आँसू पोंछने वाला। कहते हैं इंसान मौत को नहीं वरन् मौत इंसान को खींच लाती है....दो दिन बाद ही वह अपने देश की धरती पर पैर रखने वाले थे किंतु विधि के विधान को कौन टाल पाया है....? पूरी दुनिया को अपनी अपनी मुट्ठी में कैद करने का स्वप्न देखने वाला इंसान यहीं आकर मजबूर हो जाता है।


टिकट कैंसिल करवाये गये। तीसरे दिन हवन संस्कार कर सामान्य काम-काज ऐसे शुरू हो गये मानो कुछ हुआ ही न हो....निवेदिता तथा विकास भी आये....निवेदिता को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि डैडी नहीं रहे....कुछ दिन पूर्व डैड जब उसके घर से आये थे तब उसने सोचा भी नहीं था कि वह उन्हें आखिरी बार देख रही है....उसके आने से स्मृतियों के घाव तेज हो गये किंतु फिर भी सूनी आँखें सूनी ही रही....वह भी कुछ दिन रहकर चली गई।


घर में रह गई नमिता और यादें जीवन साथी की....दिन होता, रातें होती किंतु आँखों से नींद ग़ायब हो गई थी। कभी अपरिचितों की तरह निहारती रह जाती दिव्या का प्यार भरा आवाहन भी उसके दिल की सूखी नदिया में हिलोर पैदा करने में असमर्थ हो गया था। उनकी ऐसी हालत देखकर निनाद और शिवानी भी समझ नहीं पा रहे थे कि क्या करें ? अनेक डाक्टरों को दिखाया लेकिन कोई रोग हो तो समझ में आये....आखिर मनोरोग विशेषज्ञ से सलाह ली, उन्होंने केस स्टडी करने के पश्चात् कहा, "इस जमीन ने इनके पति को निगल लिया है अतः यहाँ रहना इन्हें अभिशाप लगने लगा है....स्थान परिवर्तन से शायद इनकी स्थिति में कुछ सुधार आ पाये।"


"माँ, भारत चलोगी।" एक दिन निनाद ने पूछा।

"सच कह रहा है, मुझे मेरे देश ले चलेगा....बहुत याद आती है तेरे पिताजी की, वे वहाँ मिल जायेंगे।" कहते हुए वह बच्चों की तरह खिल उठी।


सचमुच भारत पहुँचकर उन्हें जीवनदान मिल गया। उनके आने का समाचार सुनकर नीरा ,मीरा तथा अनेक रिश्तेदार और परिचित आये। महीनों से रूके आँसू थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे। लगता था कि सूखी नदी में बाढ़ आ गई है, उस बाढ़ के साथ मन के गिले शिकवे, दुख बहते चले जा रहे थे। अपने चारों ओर अपने हमदर्दो की भीड़ देखकर उन्हें लग रहा था कि इतनी बड़ी दुनिया में वह अकेली नहीं हैं।


घर की एक-एक ईट में उन्हें देवेश की झलक दिखाई देती, उन्हें सदा अपने पास ही पाती तो उनका दर्द कम हो जाता। उनका पुराना नौकर नंदू मालकिन-मालकिन कहते उनकी सेवा में लगा रहता वहीं उसकी पत्नी चमेली कभी उनके हाथ पैर दबाती तो कभी उनके सिर में तेल लगाने लगती। नंदू और चमेली उनके पुराने नौकर ही नहीं उनके घर के सदस्य जैसे ही थे। नमिता ने भी समय-समय पर उनकी सहायता की थी तथा अपने घर के सर्वेन्ट रूम में उनके रहने इंतज़ाम कर दिया था। उनके प्रयासों के कारण ही उनके बच्चे पढ़कर अच्छी नौकरी में लग गये थे पर वे दोनों ही अपने बच्चों के पास न रहकर उनके पास ही रहना चाहते थे....उनका कहना था जीवन का सवेरा जिनके साथ बिताया उन्हीं के साथ साँझ भी बितायेंगे।


"ममा, अब चलो, यहाँ सबसे तो मिल लीं।" माँ की ठीक स्थिति देखकर एक दिन निनाद ने कहा।

"बेटा, तू जा मैं यही रहूँगी।"

"ममा, तुम अकेली कैसे रहोगी....? तुम्हारा स्वास्थ भी ठीक नहीं रहता....फिर यहाँ तुम्हारी देखभाल कौन करेगा ?"

अरे, पगले, मैं अकेली कहाँ हूँ....इस घर में तेरे डैडी की यादें बसी हुई हैं....अड़ोसी-पड़ोसी नाते रिश्तेदार सब तो यहीं हैं, मेरी सेवा के करने के लिये नंदू और चमेली हैं ही....और अब मुझे किस चीज की आवश्यकता है ?" नमिता ने सहज स्वर में कहा।

"लेकिन ममा....,"

"देख बेटा, ज़िद मत करना, उनकी यादों के सहारे जीवन काट लूँगी पर जिस धरती ने मेरा सुहाग छीन लिया, उस धरती पर फिर कदम नहीं रखूँगी....वैसे भी बेटा, अपने देश की माटी जैसी सुगंध और कहीं नहीं है....मैं चाहती हूँ कि मेरी नश्वर देह उसी देश की माटी में समर्पित हो जहाँ के अन्न जल से यह फली फूली है।"


 समय पंख लगाकर उड़ रहा था। रूपये पैसे की कोई कमी नहीं थी....पर फिर भी अकेलापन काट खाने को दौड़ता था। देवेश की मृत्यु के पश्चात् वह अकेली रह गई थी....आखिर कब तक अड़ोसी पड़ोसी उनका दुख बाँटते। वैसे सब सुख के साथी हैं, .दुख तो इंसान को अकेले ही काटना पड़ता है। स्वयं पर नजर डाली तो पाया....वह अभी चुकी नहीं हैं। चाहे तो बहुत कुछ कर सकती हैं....वरना उनका खाली तन-मन शीध्र ही शिथिल होता जायेगा। अचानक उसने एक निर्णय ले लिया था कि अब वह श्रीमती मेहता....चीफ़ जस्टिस मेहता की बेवा बनकर नहीं वरन् नमिता मेहता बनकर जीयेगी। पहले तो यह न करो वह न करो की बंदिश थी। अब सब बंदिशें देवेश के जाने के साथ ही समाप्त हो गई हैं....उन्होंने कभी फैशन डिजाइनर का कोर्स किया था पर पहले समय की कमी के कारण तो बाद में स्टेटस के कारण अपनी हाॅबी को पूरा नहीं कर पाई थीं।


नमिता अपनी हाॅबी को पूरा करने में जुट गई। प्रारंभ में उन्हें कुछ परेशानी हुई पर धीरे-धीरे सब सहज होता गया। अपनी सहायता के लिये नमिता ने दो लड़कियाँ रख ली थीं। थोड़े से समय के अंदर ही उसने अपने ही घर के हाॅल में अपनी ड्रेसेज की प्रदर्शनी आयोजित की। रिसपान्स इतना अच्छा मिला कि वह स्वयं आश्चर्यचकित रह गई.। सारी की सारी ड्रेसेस बिकने के बाद उसे कई अच्छी रेडीमेड कपड़ों की दुकानों से आडॅर मिल गये। इन आडॅर को पूरा करने के लिये अपना स्टाफ बढ़ाना पड़ा....अंततः उसने अपना बुटिक खोल लिया।


कई बार निनाद और शिवानी ने उसे अपने पास आने के लिये कहा पर उसके पास समय ही कहाँ था जो जाती। प्रियेश के होने के समय पुरानी सारी बातों को भुलाकर उसने जाना भी चाहा पर उन्हीं दिनों उनके शहर की एक लड़की अपूर्वा मिस इंडिया चुन ली गई। उसे मिस वर्ल्ड प्रतियोगिता में भाग लेने जाना था, उसने अपनी ड्रेसेज बनाने का जिम्मा उसे सौंपा था अतः जा नहीं पाई। बीच-बीच में निनाद और निवेदिता आकर मिल जाते। उन्हें माँ को इस उम्र में इतनी मेहनत और लगन से काम करते देखकर आश्चर्य होता था....तब उन्हें लगता सच काम करने की कोई उम्र नहीं होती....वस्तुतः इंसान तन से नहीं मन से बूढ़ा होता है।


वैसे लगभग हर दिन ही निनाद फोन करता रहता था लेकिन पिछले एक हफ्ते से उनका फोन खराब पड़ा था। टेलीफोन डिर्पाटमेंन्ट में कई बार कंप्लेंट करने के बावजूद अभी तक ठीक नहीं हुआ था। उसका मोबाइल भी चार्ज नहीं हो रहा था शायद बैटरी खराब हो गई थी। उसे भी बदलवाना था। निनाद की कोई खबर न मिलने पर नमिता परेशान थीं....आखिर निनाद को मैसेज देने के लिये उसने कम्प्यूटर में ई-मेल साइट खोली ही थी कि स्क्रीन पर उसका मैसेज दिखाई दिया....माॅम, मैं इंडिया आ रहा हूँ...शायद हमेशा के लिय। माँ मैं दिव्या और प्रियेश को अपनी धरती पर अपनी संस्कृति के साथ पालना चाहता हूँ....माना यहाँ रूपया....पैसा, सुख सुविधा सब कुछ है पर संस्कार नहीं। जानती हो माँ, कल दिव्या डेंटिग पर जा रही थी ,शिवानी ने पूछा तब उसने बताया। न जाने देने पर उसने खूब हाय तौबा मचाई। हम सबकी यहाँ यही स्थिति है न अपनी मानसिकता छोड़ पाते है और न वहाँ की मानसिकता अपना पाते हैं। आखिर ऐसे दोराहे पर कब तक खड़े रहेंगे...? मैंने सोच लिया है अब और नहीं रहूँगा....कहीं बहुत देर न हो जाए इसलिये हमने भारत लौटने का निर्णय ले लिया है।’


पढ़कर नमिता की आँखों में आँसू भर आये....खुशी या ग़म में यह आँखें पता नहीं क्यों भर आती है....? लिखा....आ जाओ बेटा, यहाँ भी काम की कोई कमी नहीं है। तुम्हारी धरती, तुम्हारी ज़मीन तुम्हारा इंतजार कर रही है... लिखकर उसने मैसेज भेज दिया था। कंप्यूटर बंद कर कुर्सी पर बैठे-बैठे आँखें बंद कर ली....आखिर शाख का पंक्षी शाख पर लौट ही आया....निज माटी की सुगंध उन्हें खींच ही लाई, सोचकर उन्होंने संतोष की सांस ली। 

        

  



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