फिर कुंठित विचारधारा
फिर कुंठित विचारधारा
कई दफा हुए उनकी मुलाकात केअब बदल गए है वे, पहले जैसा प्रेम भी नहीं दिखता न समर्पण की दिखती कोई विशेष छवि है नाखूनों से ज़मीं को कुरेदती हुई ज़मीरा कुछ व्याकुल व्यग्रता से ग्रसित, अपनी संकुचित मानसिकता की कढ़ाई में विक्षिप्तो तरह ख्याली पुलाव बना रही थी उसमें पुराने जख्म हरे करके जैसे पुलाव का जायका बढ़ा रही हो, गुस्से में बर्तनों को जोर जोर से इस तरह पीट रही थी जैसे आज ही इनका स्वर्गवास करना हो ओ महारानी बर्तनों को आहिस्ते से छुआ करो तुम्हारे बाप की जागीर नहीं है ये।एकाएक ज़मीरा की सास ने अपनी बहू ज़मीरा को भला बुरा सुना दिया, ज़मीरा क्या करती घुट भर कर बस रह गयी।
आंगन में बैठी बूढ़ी बादलों की ओर ऐसे निहार रही थी जैसे उनके प्रियतमा पतिपरमेश्वर उनसे सांकेतिक भाषा मे बतिया रहे हो
ये बुढ़िया भी सठिया गयी है, पता है कि इनके परमेश्वर स्वर्गलोक गमन कर गए फिर भी शायद उनके वापस आने की प्रतीक्षा में अपने दिन बिगाड़ रही है और बैठे बैठे इस खटिया को तोड़ रही है आज तो ज़मीरा बहुत गुस्से में है (आखिर क्यों पर? )बात कुछ यूं है अपने कॉलेज के दिनों को पूरा करते ही ज़मीरा कि शादी हो गई मुनीम के बेटे से, सुंदर सी कद काठी, बलिष्ट शरीर और उसमें भी हाथों से मुछों को ताव देना, ज़मीरा देख कर ही मुस्कुरा उठी।
अम्मी हमें ये रिश्ता मंज़ूर है सेठ बाबू हमे पसन्द है अपनी शरमाती हुई आंखों से उसने (ज़मीरा) सब कुछ बयां कर दिया, अम्मी समझ चुकी थी अब निकाह की तैयारी भी घर में होने लगी थी वो हिज़ाब जिसे ज़मीरा ने पहना था कुदरत के लिए कयामत का आना ही था सुर्ख लवो की वो मुस्कान हाय!!ज़मीरा की सुंदरता में हीरे नगीनो से कम नहीं थी,ज़ुल्फो की कैद से तो कोई उसके छुड़ा ही नहीं सकता था, लचीला बदन, गहरी नाभि,मृग नयनी बहुत ही सुंदर लग रही थी
क्या आपको ये निकाह कुबूल है? प्रत्युत्तर हां
बधाई हो !!अल्लाह के नेक फरिश्तों ने हमारी सुनली (घरवालों की खुशी असीमित थी)
मुनव्वर (ज़मीरा का अब शौहर) ज़मीरा की खूबसूरती में आसक्त हुए शायरियों और खुद की लिखी लाइनों से ज़मीरा को खुश करने में रहने लगा अब हर दिन तो मुनव्वर को यहाँ रहना नहीं था अपने कारोबार को बढ़ाने के लिए अब उसे घर से निकलना ही था कब तक घर रहता।
ज़मीरा-मुझे भी अपने साथ लेते चलो, ,हां हां जरूर पर अभी नहीं कुछ टालते हुए मुनव्वर ने कहा बात को आगे बढ़ाते हुए ज़मीरा-अभी क्यू नहीं बीबी हूं मैं तुम्हारी क्यूं व्याह कर निकाह कर लाये हो क्या अपने अब्बु अम्मी के लिए लाए हो गहरा प्रश्न जो उसे अंदर ही अंदर खोखला बनाए जा रहा था
नहीं तुम्हे मैं खत लिखूंगा और तुम भी मुझे लिखना मुनव्वर कुछ मनाते हुए
पर मैं एक साल तुमसे कैसे दूर रह पाऊंगी इसका भी ख़्याल नहीं किया तुमने
Ohk ! मान गए बेग़म आपको। काम मे सही से सेटल होकर मैं तुम्हे जल्दी लेने आऊंगा अब बस जल्दी से मुझे इजाज़त दे दो।
हम्म !चले जाओ मैं आपका इंतज़ार करूंगी ज़मीरा ने आधे मन से उसे इज़ाजत दी ही थी कि मुनव्वर तुरन्त वहाँ से भाग निकला।
वो छत से जाकर मुनव्वर के दूर तक के सफर को देखने के लिए बेतहासा आहत थी, पर इससे मुनव्वर को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था वह अपनी ही मस्ती में मग्न था उसने एक बार भी ज़मीरा की ओर मुड़कर नहीं देखा, तब से आजतक न कोई पत्र आया न ही कोई ऐसा संदेश की मुनव्वर कब आयेगा और आज भी ज़मीरा मुनव्वर के इंतज़ार में हर दिन सजती है सँवरती है आज दूसरे वर्ष की वह तारीख़ भी कैलेंडर में इस तरह से दिखाई दे रही थी जैसे चीख चीख कर इस दिन की भरसक निंदा कर रही हो ज़मीरा का ज़मीर उसे हर दिन एक रुदन की कुंठित श्रृंखला से जोड़कर बस रह जाता, यहाँ ज़मीरा ने इतने पत्र लिखे किंतु पते के अभाव में सिर्फ अपने तक ही रख पाई तब से अभी तक कि ज़मीरा की मासूमियत क्रोध की ज्वाला से और भस्म होने लगी थी उसे अब किसी पर विश्वास कर पाना सहज नहीं लग पा रहा था फिर से बर्तनों की उठापटक ने ज़मीरा की सास का बोलबाला शुरू कर दिया वो घुट भर कर रह गयी सहसा दरवाजे पर किसी के आने की आहट सुनाई दी ज़मीरा झट दौड़ी शायद मुनव्वर आ गए है प्रतीक्षा कि घड़ी फिर तमतमाई और ओझल सी हो गयी अचार की बरनी वाला आया था वो उठ कर काम में लग गयी और गहरी सांस भर कर रह गयी ज़मीरा की कहानी अभी भी अधूरी रह गयी पता नहीं कब पत्र लिखा हुआ भेजना पड़ जाए वो शिकायत के प्यार का पैगाम फिर से लिखने लगी।