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किश्वर अंजुम

Tragedy

5.0  

किश्वर अंजुम

Tragedy

जूठन का पछतावा

जूठन का पछतावा

4 mins
512


अच्छे खाते पीते घर की बेटी और बहू को इस हाल में देखूंगी, ये मैंने कभी नहीं सोचा था। आज तीस साल बाद, वापस इस शहर में ट्रांसफर हो के आने पर मैं बहुत खुश थी कि पुराने परिचितों से मुलाकात होगी और बचपन की यादें ताज़ा होंगी, पर चंदा दीदी को फटे पुराने कपड़ों में सड़कों पर घूमते देखकर मैं अंदर तक हिल गई। अपने मां बाप की इकलौती औलाद चंदा दीदी, अपने पिता की बहुत मन्नत मुरादों का फल थीं। ढलती उम्र की औलाद को उन्होंने बहुत दुलार से बड़ा किया था। उसकी हर ख्वाहिश पूरी की जाती थी। अपने मां बाप की आंख का तारा चंदा दीदी ने आठवीं कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़ दी और घर पर ही रहीं। दिन भर या तो वो सोती रहती, या खाती रहती या मोहल्ले में इधर उधर घूमती या फिर पिता के साथ उनकी दुकान पर जाकर नौकरों को डांटती रहती। घरदारी सीखने और पढ़ने में तो उनकी रुचि ही नहीं थी। मैं उस समय तीसरी कक्षा में पढ़ती थी। चंदा दीदी हमारे मोहल्ले में ही रहती थीं। हम बच्चों के साथ वो बहुत अच्छा व्यवहार करती थीं। हमें, अक्सर कभी इमली, कभी मीठी गोलियां और कभी अमरूद देती थीं। उनसे जुड़ी आख़िरी यादों में, बस इतना याद है कि जब में मैट्रिक में थी, तो चंदा दीदी का ब्याह हो गया और फिर उनसे मुलाकात नहीं हुई। उनका ससुराल भी संपन्न था। चंदा दीदी के पति भी अपने माता पिता की इकलौती संतान थे।

आज उन्हें यूं भटकते देख मैं समझ नहीं पाई कि क्या करूं। पति को, मेरा एक अर्धविक्षिप्त सी महिला का भरे बाज़ार में यूं हाथ पकड़ के खड़े हो जाना अजीब लग रहा था, उनकी आंखों में कई सवाल थे। सवाल तो मेरे मन भी हज़ारों थे, जिनके जवाब सिर्फ वहीं दे सकती थीं, जिनको देखने से ये सवाल जन्मे थे। चंदा दीदी मुझे पहचान गईं। बहुत मनुहार के बाद वो मेरे साथ चलने पर राज़ी हुईं। घर पहुंच कर मैंने उनसे नहाने का अनुरोध किया, वो मान गईं। नहा कर, मेरे दिए साफ कपड़े पहन कर, थोड़ा सा नाश्ता करने के बाद वो शांत मन से बोलीं, " तुम्हे भी मैं पागल लग रही हूं न ?" "नहीं दीदी, ऐसा नहीं है।" मैंने कहा। "पर आप ऐसी अवस्था में क्यों घूम रहीं हैं ?" " मैं प्रायश्चित कर रही हूं !" उन्होंने कहा। " किस बात का प्रायश्चित दीदी ?" "अपनी भूल का, ऐसी भूल जिसने आज मेरी ये अवस्था कर दी है।"

चंदा दीदी ने कहना शुरू किया। "लंगर की पंगत बिछी थी। लोग खा रहे थे। भूख से मेरी आंते कुलबुला रही थीं। अगली पंगत का इंतजार करना भारी पड़ रहा था। मैं, गुरुद्वारे के लंगर की लाइन में, बड़े सब्र के साथ खड़े रहकर, अपनी बारी का इंतजार कर रही हूं। मैं, वही हूं जिसको खाना पसंद न आने पर, मां को रसोई फिर से बनानी पड़ती थी। मैं वही हूं, जो हमेशा, थाली में ढेर सारी जूठन छोड़ती थी। मैं वही हूं, जो शादी के बाद दो लोगों के लिए, चार लोगों का खाना बनाकर, बचा खाना, हर दिन फेंकती थी। हां ! मैं वहीं हूं, जो कभी, सुबह की सब्ज़ी, दाल, चावल या रोटी शाम को नहीं खाती थी। मैं वही हूं, जो अन्न की बरबादी न करने की सलाह देने पर, मुंह फुला के बैठ जाती थी। मैं वही हूं, जो पिता और पति के घर, सप्ताह में तीन दिन, होटल का खाना खाती थी। मैं वही हूं, जिसकी रसोई में अनाज में कीड़े पड़ते रहते थे, और अन्न सड़ सड़ के बर्बाद होता था, परन्तु मुझे कोई चिंता नहीं रहती थी।

मैंने जीवन में सिर्फ़ मनमानी की है। आज मुझे होश आया है, जब मेरा सब कुछ लुट चुका है। प्यार करने वाला पति, मुझे छोड़ गया। न, न, मेरे पति की कोई गलती नहीं है, मुझे तो आश्चर्य होता है कि, मेरे जैसी बेशऊर और ज़िद्दी महिला को उन्होंने इतने दिन सहा कैसे ? मैं, अपने बच्चों को भी अपने जैसा बना रही थी। पति के रूप में, उन्होंने मेरी हर गलती माफ की, पर अपने बच्चों से प्यार करनेवाले पिता से अपने बच्चों की बेढंगी परवरिश नहीं देखी गई। वो चले गए, बच्चे लेकर। मुझे छोड़ गए। मुआवजे के रूप में एकमुश्त रकम को देकर। मैंने कुछ ही सालों में सारे रूपए खर्च कर दिए। मेरी फूहड़ता और ज़िद्दीपन ने मुझे आज जहां लेके खड़ा किया है, वो जगह मेरे लिए, मैंने खुद, अपने कर्मों से तय की है। जितना जूठन मैंने छोड़ा है, और जितनी अन्न की बर्बादी की है, उसमें एक आदमी की आधी ज़िंदगी गुज़र जाती। आज रिश्तेदारों की जूठन और लंगर के भोजन पर जीवित हूं।"

कर्म का लेखा भोग रही हूं, ये लेख स्वयं मैंने लिखा है।

जीवित हूं अब भिक्षा पर, क्योंकि अन्न को मैंने फेंका है।

चंदा दीदी खामोश हो गईं। मेरे पास भी कहने को कुछ नहीं था।


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