काश के फूल
काश के फूल
वागीश को शहर से आये दो दिन हो गये हैं। इस बार उसका व्यवहार कुछ बदला बदला सा है। दो दिन से वह अपने कमरे से बाहर ही नहीं निकला।
पता नहीं क्या है ? जो उसे इतना परेशान किया हुआ है। यद्यपि वह शुरू से ही आत्मकेन्द्रित, हमेशा शान्त और खोया खोया सा ही रहता था। लोग उसे कम बोलने वाले के तौर पर ही जानते थे, किन्तु कुरेदने पर वह ऐसा खुलता कि सामने वाला जब तक उसकी बातों से ऊंघ न जाये मजाल कि वो चुप हो जाये।
लेकिन ऐसा कम ही होता क्योंकि लोगों को वह समझ ही नहीं आता। यहां तक कि घर के सदस्य भी उसे सही तरीके से नहीं जान सके थे क्योंकि वह कभी भी अपने बारे में ज्यादा बातें नहीं करता था किन्तु कुछ तो था जो उसके भीतर गहरे दबा था. जो अक्सर दर्द के झोंके के रूप में दस्तक दे जाता और वह घाव फिर से हरा हो जाता।
उस दिन सुबह बहुत सुहानी थी। वर्षा और शीत के बीच का संक्रमण ॠतु हेमन्त का मौसम था। हवा में नमी के साथ हल्की ठंड थी। ओस की बूंदों ने जमीन, पेड़ों तथा घासों पर कब्जा जमा रखा था। सब भीगा भीगा सा था और ऐसा लगा था कि रात की खुमारी अब भी इन पर से न उतरी हो। धीरे-धीरे सब कुछ मंथर गति से रोजाना कि तरह चल रहा था।
वागीश भी गांव की उस पगडंडी पर कुछ विचारमग्न चलता जा रहा था।
उसे देखकर ऐसा लग रहा था कि मन और शरीर अलग-अलग चल रहे हों। वह अनमने से दोनों ओर बारी बारी से देखते हुये टहलने के अंदाज में चल रहा था। वह शरीर से वहां था किन्तु उसका मन कहीं और था। पता नहीं क्यों आज अनायास ही उसे बार-बार ध्रुवनंदा की याद आ रही थी। ऐसा क्यों हो रहा था उसे खुद भी मालूम नहीं। पिछले दो साल हो गये थे वह उससे मिला भी नहीं था फिर ऐसा पहले तो नहीं हुआ कि उसकी यादों ने उसे इस कदर अधीर कर दिया हो। वह यही सोचता हुआ धीरे-धीरे आगे बढ़ता जा रहा था।
पगडंडी को दोनों ओर से काश के झुरमुटों और सफेद फूलों से लदी घासों ने आधा ढक रखा था। सहसा काश पर खिले इन फूलों को देखकर वागीश रुक गया। उन सुंदर किन्तु सुगंध रहित फूल से उसका पुराना जुड़ाव है। इसे देखकर स्मृति पटल पर पुराने धुंधले से स्मृति चित्र तैर गये। वह अपलक उन फूलों को निहारे जा रहा था। ओस की बूंदों ने उन बड़े-बड़े फूलों को गीला कर रखा था। उनकी अनेकों पंखुड़ियां आपस में उलझी सी लिपटी हुई थी, ठीक वैसे ही जैसे वागीश की वर्तमान जिंदगी उलझी हुई है। उसे उन फूलों से हमेशा आत्मीयता महसूस होती थी। वागीश को बचपन से ही लगभग हर तरह से त्याज्य इन फूलों से बेतहाशा लगाव है। उसकी इसी चाह के कारण ध्रुवनंदा जिसे इन फूलों से घृणा थी उसके सामने इसकी कितनी प्रशंसा करती, यहां तक की वह उसे उसके लिये तोड़ कर भी लाती। वागीश उन फूलों को देखते देखते पुरानी यादों में खो गया।
गांव व की उसी पगडंडी पर दो बच्चे शोर मचाते हुये दौड़े जा रहे थे।
वागीश रुक जाओ, मुझे भी आने दो.... रुको नहीं तो गिर जाओगे, नहीं... मैं तुमसे पहले पहुँचूंगा..
ठीक है पर रुक तो जाओ...
नहीं मुझे पकड़ कर दिखाओ।
ये कोई और नहीं बल्कि सात साल का वागीश है जो आगे आगे भाग रहा है और उसके पीछे दस साल की ध्रुवनंदा जिसे वागीश नंदा ही कहता है। अचानक दौड़ते दौड़ते वह उन काश के फूलों के पास रुक जाता है। उन फूलों को देखकर उसकी आखों में अलग ही चमक आ जाती है। जिन फूलों को लोग देखना भी अच्छा नहीं समझते वह उसे इतने अच्छे लगते कि कुछ कहना नहीं।
तब तक ध्रुवनंदा भी उसके पास पहुँच जाती है।
पकड़ लिया न.. अब बोलो ?
वागीश कुछ बोलता नहीं बोलता वह बस एकटक उन फूलों को ही देखे जा रहा था।
क्या हुआ ? रुक क्यों गये हो चलो ? ध्रुवनंदा उसका हाथ पकड़कर खीचते हुये बोली।
मुझे वो फूल चाहिए... वो बड़े फूल ?
नहीं वागीश वो फूल नहीं, काकी ने हमें उनसे दूर रहने के लिये कहा है। तुम्हें पता है कि उन्हें छूने वाला बीमार हो जाता है। काकी ने बताया था कि उसमें दुष्ट परी रहती है और जो बच्चा उसके पास जाता है वह उसे बीमार कर देती है।
ध्रुवनंदा ने उसे नसीहत देते हुये कहा पर वागीश कहां मानने वाला था, उसे तो वो दुनिया के सबसे सुंदर फूल लग रहे थे। बिना उसके वह हिलने को भी तैयार नहीं। ध्रुवनंदा ने उसे बहुत समझाया पर वह नहीं माना।
लेकिन वो मुझे चाहिए ?
उसके इस हठ के आगे वह हार गयी।
ठीक है ! एक ही फूल लेकिन बस आज ही आगे से नहीं।
ठीक है..
धुवनंदा काश की झुरमुटों में उन फूलों को तोडने के लिये गयी। वो काफी ऊंचाई पर थे और वो भी बच्ची ही है। काफी मशक्कत के बाद वह दो फूल किसी तरह तोड़ सकी लेकिन इस बीच उसके हाथों और चेहरे पर काश के पैने पत्तों ने कई घाव कर दिये। फूलों को पाकर वागीश बहुत खुश हुआ, उसके चहकते चेहरे को देख ध्रुवनंदा अपना दर्द और डांट खाने का डर दोनों भूल गयी।
ध्रुवनंदा और वागीश का परिवार पड़ोस में ही रहता था। दोनों परिवारों के संबंध बहुत मधुर नहीं थे किन्तु इन्हें देखकर ऐसा नहीं कहा जा सकता। सुबह से लेकर शाम तक जब भी समय रहता ये दोनों साथ रहते। वैसे भी मुहल्ले में ये दोनों ही हमउम्र है। दूसरे बच्चे या तो बड़े या बहुत छोटे थे। वागीश और ध्रुवनंदा की जोड़ी मुहल्ले में मशहूर थी। जब कोई उनमें से किसी को ढूंढता तो दूसरा भी साथ ही रहता। मुहल्ले के लोग मजाक मजाक में उन्हें राधा कृष्ण की जोड़ी कह देते हालांकि दोनों ही परिवारों को यह उपमा पसंद नहीं थी।ध्रुवनंदा, वागीश से तीन साल बड़ी थी और इस उम्र में तीन साल का अंतर समझ में काफी फर्क कर देता है। यही अंतर इन दोनों के बीच भी दिखता था।
जब भी वो गुड्डे गुड़िया का खेल खेलते तो वागीश गुड्डा बनता और वह उसकी गुड़िया वो जो सच में उसका गुड़िया जैसे ही खयाल रखती। वागीश उसे वही सफेद फूलों की अंगूठी और काश के फूलों की माला भेंट करता जिसे वह खुद ही बनाती। इन फूलों को बिल्कुल भी न पसंद करने वाली ध्रुवनंदा उन्हें पाकर ऐसे खुश होती जैसे वो बहुत कीमती हो। उन दोनों के इस खेल के क्या निहितार्थ थे वागीश इससे बिल्कुल भी वाकिफ नहीं था किन्तु उसे यह अच्छा लगता था। ध्रुवनंदा के बारे में तो स्पष्ट नहीं कह सकता लेकिन इतना जरूर था कि वह वागीश से बहुत ज्यादा जानती थी। वागीश हर खेल में उससे अपनी बातें मनवाता और वह खुशी खुशी मान लेती।
हार कर भी उसके चेहरे पर सुकून रहता।
वागीश को वह दिवाली भी याद थी जब वह पटाखे से वह अपना चेहरा जला बैठा था। उस समय वह कितना रोई थी। यहां तक कि उसकी आंखें सूज आयी थी। उसके इस व्यवहार पर सभी के साथ-साथ वागीश भी बहुत हैरान हुआ था।
दिन कटते गये और दोनो बड़े होते गये। न ही वागीश का उन फूलों के प्रति लगाव कम हुआ न ही ध्रुवनंदा का वागीश का ध्यान रखना ही कम हुआ। हां, यह समाज के बनाये बंधनों से सीमित जरूर हो गया। वागीश अब भी ध्रुवनंदा पर अपना अघोषित अधिकार समझता रहा और ध्रुवनंदा ने भी कभी इसका विरोध नहीं किया, कारण क्या था ये तो वही जानती थी।
इंटर की परीक्षा पास करके वागीश आगे की पढ़ाई के लिये शहर चला गया। वह अपने साथ ले गया था अपने सुनहरे सपने जिन्हें वह अक्सर ध्रुवनंदा से कहता रहता। इसके साथ ही पीछे छूट रहा था, वह था ध्रुवनंदा का उसके प्रति लगाव और समर्पण। समय पंख लगाकर उड़ता रहा। वागीश और ध्रुवनंदा का मिलना बहुत कम हो गया।
वागीश के जीवन में वैसे भी किसी के लिये जगह कम थी। बस वो था और उसके सपने, उसमें ध्रुवनंदा की जगह कैसे बनती। अतः वह धीरे-धीरे विस्मृत होती गयी।
सालों बीत गये किन्तु वागीश सफलताओं की सीढियां न चढ़ सका और हर तरफ से उपेक्षित ध्रुवनंदा ने समाज के बंधनों के सम्मुख समर्पण कर दिया।
ध्रुवनंदा के विवाह को आज पांच वर्ष हो गये। इन पांच वर्षों में वागीश को उसकी कभी याद नहीं आयी किन्तु आज उसकी यादें उसे बेचैन किये हुये थी। ये काश के फूल उसे बरबस ही उसकी यादों के समुंदर में ढकेल रहे थे जिनमें वह बहुत हाथ पैर मारकर भी डूबता जा रहा था।
सहसा उसे याद आया कि अभी कुछ समय पहले जब ध्रुवनंदा यहां आयी थी तो उसने बताया था कि वह इस समय अपने पति के साथ भारत के पश्चिमी तट के छोटे से बंदरगाह शहर कारवार में रह रही है, जहाँ उसके पति मर्चेंट नेवी में हैं। उसने कागज पर लिखकर अपना पता भी दिया था।
वह तेजी से घर की ओर भागा। तभी हवा का हल्का सा झोंका आया और अलसाये से काश के फूल हर्षित हो उठे।
घर पहुंच कर वह सीधे अपने कमरे में पहुंचा, कागज के टुकड़े के लिये वह सारे कमरे के सामान को बिखेर दिया। आखिरकार बिस्तर के नीचे उसे वह मिल गया। वागीश उसे पाकर इतना खुश था जैसे बारिश की पहली बूंदों को देखकर मयूर नृत्य कर उठता है।
उसकी खुशी का कारण क्या था उसे खुद भी नहीं मालूम। उसे जीवन में पहली बार ध्रुवनंदा से मिलने की इतनी उत्सुकता थी।
परीक्षा का बहाना बना एक हफ्ते का समय और खर्चे के रुपये मांग कर वह तैयार था। यद्यपि वागीश कभी झूठ नहीं बोलता किन्तु कुछ अदृश्य सा घट रहा था जो उसे सम्मोहित कर सुई की तरह घुमा रहा था। अपनी यात्रा की अन्य तैयारियां उसने इंटरनेट के माध्यम से पूरी कर ली। नियत समय पर वह अपने सफर पर रवाना हो गया। वह ऐसे खुश था जैसे कोई बालक नया खिलौना पाकर चहक उठता है।
जैसे जैसे वह गंतव्य की ओर पहुंच रहा था उसकी धड़कन बढती जा रही थी। इस इक्साइटमेंट का क्या कारण था उसे नहीं पता। शायद सही ही कहा गया है कि हृदय के रिश्ते किसी महीन तार से गुंथे होते हैं और इन पर मस्तिष्क का नियंत्रण नहीं रहता। ऐसा ही कुछ वागीश के साथ घट रहा था।
कारवार पहुंच कर उसने विश्राम भी न किया। उसे बस ध्रुवनंदा से मिलने की बेचैनी थी। वह उस पते को खोजते खोजते आखिर कागज पर लिखे पते पर पहुंच गया। उसके सामने के मकान पर लिखा था " रतननंदा "। वागीश के चेहरे पर संतोष के भाव ऐसे उभर आये थे जैसे उसने पारसमणि खोज ली हो। कांपते हाथों से उसने डोरबेल बजायी। दरवाजा किसी और ने नहीं ध्रुवनंदा ने ही खोला। सामने वागीश को देखकर वह धीरे से मुस्कुराई। वह बिल्कुल भी अचम्भित न थी, उसे देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे उसे इस बारे में सब पता हो। बल्कि उसे इस तरह देख वागीश को हैरानी हुई। मैं इस शहर में कुछ काम से आया था सोचा तुमसे मिलता चलूँ। तुम्हें सरप्राइज दूंगा इसलिये मैंने आने की खबर नहीं की। यह कहते कहते वागीश हकलाने सा लगा। झूठ बोलते समय उसकी ऐसी स्थिति हो जाती थी। उसे इस तरह उलझे देख वह हंसी और कहा चलो अच्छा किया, अंदर आ जाओ आराम से बात करते हैं।
घर पर सब ठीक है, पानी का गिलास वागीश की तरफ बढ़ाते हुये ध्रुवनंदा ने कहा।
हाँ...
अचानक इस शहर में कौन सा काम निकल आया।
बस है कुछ... तुम यहां सिर्फ रतन के साथ ही हो। वागीश ने बात बदलते हुये कहा।
नहीं मेरी ननद भी है।
तुम्हारी बेटी नहीं दिख रही है...
वो जिज्ञासा के साथ बाहर गयी है। वह उसे घुमाने ले गयी है।
लम्बा सफर था, तुम थक गये होंगे, बैठो मैं काॅफी बना लाती हूं।
ये तो है।
यह कहकर ध्रुवनंदा अंदर चली गयी।
उस हालनुमा कमरे में वागीश अकेला ही रह गया था ।उसने कमरे में चारों ओर नजर दौड़ाई। अजीब सी खामोशी कमरे मे फैली थी। उसे ऐसा लगा जैसे कमरे की एक एक चीजें उसे घूर रही हों, अचानक वागीश की नजर सामने खुली किताब पर गयी। वह उसके पन्ने पलटने लगा, उसकी नजर किताब में दबे काश के फूल की पंखुड़ियां पर गयी, ये तो वही फूल हैं एक बार फिर स्मृति पटल पर कुछ चित्र तैर गये।
कॉफी का कप लिये ध्रुवनंदा का कमरे में प्रवेश हुआ।
कहाँ खो गये हो स्वप्नदर्शी, शायद दूसरी दुनिया में विचरण कर रहे हो, वापस आ जाओ तो हम कॉफी पियें।
ध्रुवनंदा के शब्द जब वागीश के कानों में पड़े तो वह सच में चौक पड़ा। ऐसे जैसे वह उससे अभी-अभी ही मिला हो। वह सत्य ही यादों के समुंदर में अपनी छोटी सी नौका को चप्पुओं के सहारे डूबने से बचाये रखने की कोशिश कर रहा था जहां उसकी और ध्रुवनंदा की यादें प्रचंड लहरों की तरह हिलोरें मार रही थी। ध्रुवनंदा के इस अचानक विघ्न से वह कुछ पल के लिये असहज हो गया। उसे मुस्कुराते देख अपनी व्यथा को छुपाते हुये कहा-
ऐसी कोई बात नहीं और तुम्हें तो पता है कि विचारों के संसार में विचरना मुझे कितना पसंद है।
हाँ ये तो सही बात है ,कॉफी का मग आगे बढ़ाते हुये ध्रुवनंदा ने कहा।
वागीश ने कॉफी लेते हुये उसके चेहरे की ओर देखा। उसके भाव से वह समझ गया था कि उसे उसके झूठ की जानकारी है। वह शांत थी, कुछ ऐसे जैसे कोई तूफान का संकेत हो।वह शुष्क आंखों से खिड़की के बाहर शून्य में निहार रही थी। कमरे में दोनों मौजूद थे और कई दिनों के बाद मिलने के बाद भी बातें करने को शब्द कम पड़ रहे थे।
और जीवन की गाड़ी कैसी चल रही है, वागीश ने उस भारी वातावरण को सहज बनाने का प्रयास किया।
ठीकठाक...हल्की हंसी चेहरे पर लाते हुए उसने कहा।
हालांकि उसके चेहरे के भाव और हंसी आपस मे मिलान नहीं कर रहे थे किन्तु इससे अधिक कुरेदने को वागीश का मन ही न हुआ।
वही खामोशी फिर से कमरे में फैल गयी। दोनों ही अपनी-अपनी काॅफी खत्म करने की होड़ में लग गये।
तुम बताओ वागीश तुम्हारा क्या चल रहा है....काॅफी मग को टेबल पर रखते हुये ध्रुवनंदा ने कहा।
कुछ नहीं, बस वैसा ही सब कुछ है जैसा तुम्हारे आने से पहले था, कुछ नहीं बदला, वही परजीवी जीवन, वही किताबें और उनके पन्नों पर बनते बिगड़ते सपने, जिनके पूरे होने के चिन्ह दूर दूर तक कहीं नहीं दिखते, वागीश के शब्दों में उसकी वेदना परिलक्षित हो रही थी।
पर क्यों, तुम्हें तो उनसे बहुत प्यार था, इतना कि तुम कुछ और देख ही नहीं सके, फिर इससे मोहभंग क्यों ?
तुम सही कह रही हो नंदा, उससे मुझे अब भी उतना ही प्यार है, किन्तु इस खुशी को बांटने के लिये भी तो कोई होना चाहिए।
तो क्या अभी तक कोई नहीं...
नहीं..
पर क्यों ?
पता नहीं...शायद मेरे जैसा कोई नहीं, या अब तक मैं उससे मिल नहीं पाया। कुछ भी कह सकती हो।
हूँ हहह, ऐसा भी हो सकता है वागीश कि तुम उससे मिले हो और तुम उसे पहचान न पाये हो...
हाँ, नंदा, हो सकता है, थी शायद किन्त ,मैं ? वागीश ने लम्बी आह भरी और चुप हो गया।
अनजाना सा दर्द दोनों के ही चेहरे पर उभर आया था, कुछ ऐसा जिसका मलाल उन्हें आज भी हो। दोनों ही इस दर्द को पहचान रहे थे। वो कहते हैं न कि 'खग जाने खग ही की भाषा।
कमरे में एक बार फिर खामोशी फैल गयी। सिर्फ दीवार पर टंगी घड़ी की टिक टिक ही यह बता रही थी समय किसी का भी इंतजार किये बिना कैसे अविरल नियत वेग से बहता रहता है। मुसाफिर को खुद ही अपने को इसके अनुकूल बनाकर चलना पड़ता है किन्तु यहाँ दो नौकायें धारा में विपरीत सफर कर रही थी जो एक दूसरे को पास से गुजरते हुये सिर्फ बेबस देख सकती थीं। वो चाहकर भी इस जीवन रूपी नदी में साथ नहीं चल सकती थी।
एक दोस्त के तौर पर मैं तुम्हें एक सलाह देना चाहूंगी वागीश।
कैसी सलाह ?
अगर जीवन में खुशियाँ चाहते हो तो खुद जैसी साथी की तलाश बंद कर दो।
पर क्यों ? क्यों नंदा, खुद जैसा ही हमसफर चाहना कोई पाप तो नहीं।
मैंने कब ऐसा कहा कि यह गलत है, मैं सिर्फ तुम्हें अब आगे की जिंदगी में खुश देखना चाहती हूं। यह मेरी सलाह भर है।
पर क्यों ? इसका कुछ कारण तो होगा नंदा।
संबंधों का मतलब समझौता होता है...इसी आधार पर इनका जीवन तय होता है। तुमने इतनी साइंस तो पढ़ी ही है कि समान आवेश के कण एक दूसरे को प्रतिकर्षित करते हैं।चुम्बक को भी किसी से चिपके रहने के लिये विपरीत ध्रुवों की आवश्यकता होती है।
हाँ, ये तो मैं भी जानता हूँ पर इनका इससे क्या संबंध ?
वागीश हैरान था।
जैसे एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकती उसी तरह अपने सोच पर समझौता न कर सकने वाले साथ रहने पर सिर्फ अपने अंग ही कटेंगे और कुछ नहीं, तो तुम कहती हो कि मुझे...
हाँ, तुम्हें ऐसे साथी की जरूरत है जो सिर्फ तुम्हारी तरह न सोचे बल्कि वह उसके साथ उसके सपनों को जी सके।
ध्रुवनंदा एकदम अभिभावक की तरह अधिकार स्वरूप उसे समझा रही थी।
यदि ऐसा न हुआ, अगर वह मुझे न समझ सके तो...
ये भी तो हो सकता है कि तुम खुद ही उसके प्यार को न समझ सको। वागीश तुमने अपने चारों ओर जो इस्पाती शील्ड लगा रखी है इसने तुम्हारी भावनाओं को कैद कर रखा है।अभी तक ऐसा कोई भी यंत्र नहीं बनाया जा सका है जो किसी के मन में झांक सके।अपनी भावनाओं को दूसरे तक पहुंचाने के लिए उसे व्यक्त ही करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त कोई दूसरा मार्ग नहीं। इसके लिये सबसे पहले खुद के इस्पाती कवच में कुछ द्वार बनाने पड़ेंगे। जिससे ताजा हवा के झोंके अंदर पहुंच सके।
अरे उसे इंग्लिश में क्या कहते हैं....हाँ...केयरिंग एण्ड शेयरिंग...ध्रुवनंदा ने मुस्कुराते हुये कहा।
बाहर मौसम तूफान के आने का संकेत कर रहा था। इधर एक तूफान वागीश के अंदर उठ रहा था। ज्ञानदर्प के जिस महल को वह बहुत मजबूत समझता था वह ध्रुवनंदा के सामान्य तर्कों के सामने ही भरभरा चुका था। अंदर का तूफान बाहर के तूफान से भी ज्यादा जोर से उठ रहा था।
पता नहीं कहाँ रह गयी ये, मौसम खराब होता जा रहा है। ध्रुवनंदा बेचैनी से खिड़की पर जा पहुंची। अब तो बारिश भी शुरू हो गयी थी। भीग कर बीमार हो जायेगी। मैंने रोका था जिज्ञासा को इसे साथ न ले जाये पर ये तो उसे सर पर चढ़ा रखा है।
तभी डोरबेल बजी। ध्रुवनंदा ने दौड़ कर दरवाजा खोला। एक बीस इक्कीस वर्ष की युवती एक छोटी बच्ची को लिये अंदर प्रवेश किया। ध्रुवनंदा को देखते ही वह दौड़ कर उसकी गोद में चढ़ गयी।
यह अर्कू थी ध्रुवनंदा की तीन साल की बेटी और युवती उसकी ननद थी जो उसके साथ ही रहती है। वागीश को बैठे देख वह बगैर कुछ बोले अंदर चली गयी।
फिर से कहीं खो गये, तुम भी बिल्कुल नहीं बदले, इतनी देर तक जो यहां घटा तुम्हें कुछ भी पता नहीं चला होगा।
क्या घटा ? जैसे नींद से जगते हुये वागीश ने कहा।
ओह्ह हो, छोड़ो भी, ये बताओ यहा कहां रुके हो।
बस थोड़ी दूर पर एक होटल है जिसमें डोरमेन्ट्री में ठहरा हूं।
वहां क्यों यहीं रुक जाते...
नहीं बस, ठीक है।
लेकिन आज का खाना खाकर ही जाना, ध्रुवनंदा ने अधिकार जताया।
लेकिन...वागीश के शब्द पूरे भी न हुये थे कि वह बोल पड़ी।
बाहर इतनी जोर से बरसात हो रही है तुम कैसे अपने होटल तक जा पाओगे, वारिश रुकने दो मैं उनसे बोल दूंगी वो तुम्हें होटल छोड़ आयेंगे।
तुम्हारे पति का नाम रतन है न ?
हाँ, क्यों ?
कुछ नहीं बस ऐसे ही। वो मर्चेंट नेवी में हैं न ? उसमें तो छुट्टी कम ही मिलती है, क्या वो इस समय छुट्टी पर आये हैं।
हाँ, उन्होंने छुट्टी ली है, कुछ तैयारी करनी थी..
कैसी तैयारी, सब ठीक तो है ?
कुछ वैसा नहीं है, हम जा रहे हैं न...
कहाँ जा रहे हो ? वागीश बेचैन हो उठा।
डरबन..
डरबन... क्या घूमने जा रहे हो ?
नहीं..
तो..
रतन ने डरबन में ही सेटल होने का निर्णय लिया है।
पर यहां क्या दिक्कत है।
रतन बता रहे थे कि वो अपने सपनों को वहीं पंख दे सकते हैं।
और तुम्हारे सपने ध्रुवनंदा,,,,
ध्रुवनंदा ने प्रश्न वाचक नजरों से वागीश की ओर देखा।
मेरा मतलब था कि तुमने भी तो कुछ सोचा होगा उनका क्या..।
मैंने तुमसे कहा था वागीश संबंधों का नाम ही समझौता है। दुनिया में किसी की भी परवाह न करने वाले अक्सर अकेले रह जाते हैं..
वागीश इसके आगे कुछ न कह सका। उसने बेबस नजरों से ध्रुवनंदा की ओर देखा। दोनों के ही नेत्र सजल हो चुके थे। दिलों में उठते दर्द ने वागीश को भी यह समझा दिया था कि उनके रिश्ते की परिभाषा क्या थी।
दोनों ही अपनी भावनाओं पर नियंत्रण करने की भरसक कोशिश कर रहे थे किन्तु असफल साबित हो रहे थे।
जाने से पहले मैं तुमसे एक बार मिलना चाहती थी, फिर पता नहीं कब मुलाकात होती और संयोग देखो कि तुम्हारा इस शहर में काम के सिलसिले में आना हो गया।
आखिर काश के फूलों ने अपना काम कर दिया। हमारे तुम्हारे रिश्तों के आखिर वही एक गवाह और शुभ चिंतक थे।
काश के फूल..
हां वागीश जिनसे तुम कुछ दिन पहले ही तो मिले थे।
किन्तु तुम्हें कैसे पता चला ?
यहाँ भी वो काश के फूल मौजूद हैं जिन्हें तुम मेरी अनुपस्थिति में देख रहे थे।
वागीश हैरान था और लज्जित भी...
मैं तो बस ऐसे ही...
कोई बात नहीं वागीश तुम नहीं कहोगे क्योंकि तुम्हारे अभिमान को चोट पहुंचती है। मुझे जो जानना था मैं जान चुकी हूं। मेरा अंतर्मन कितना शांत है मैं कह नहीं सकती। अब ये' काश के फूल' ही हमें एक दूसरे की यादों में रखेंगे। ध्रुवनंदा ने उठते हुये कहा। हां वागीश खाना खाकर ही जाना।
इतना कहकर वह उठी और डिनर की तैयारी के लिए किचन में चली गयी।
बाहर तूफान के साथ बरसात भी तेज हो गयी थी। वागीश के लिये वहां बैठना और अंदर के बादलों के बरसना से रोकना मुश्किल हो गया। वह तूफान की परवाह किये बिना ही वहां से चल दिया। बाहर और अंदर बादल जम कर बरसते रहे किन्तु वागीश के आंसुओं को उस तूफानी रात में छुप कर निकलने का मौका मिल गया। वहां से वह होटल न जाकर सीधे रेलवे स्टेशन की ओर रवाना हुआ। इस शहर में एक क्षण भी रहना उसे भारी लग रहा था।
रात की बरसात अब रुक चुकी थी। वागीश वापस शहर आने वाली ट्रेन में खिड़की के पास बैठा बाहर की ओर निहारे जा रहा था। ट्रेन के छूटने का टाइम हो रहा था और हार्न देते हुये वह धीरे-धीरे चल पड़ी थी। उधर डॉकयार्ड से शिप भी डरबन की ओर रवाना हो रहा था। उसके साथ ही कोई सब कुछ पीछे छोड़कर नये परिवेश में खुद को प्रतिस्थापित करने की कोशिश कर रहा था। दोनों ही इस शहर से दो दिशाओं में विदा हो रहे थे। बस इनके साथ कोई जा रहा था तो वह था वही'' काश के फूल"।