सभ्यता के नाम पर ढ़कोसला
सभ्यता के नाम पर ढ़कोसला
अब नहीं दिखते गोबर लिपे भित्ति के घर
यदा-कदा भी नहीं दिखते
लुप्त हो रहा छप्पर वाले फूँस का जंगल
बल्लियों वाले बाँस दाम
लोहे के सरिया से तुलना कर रहा ख़ुद को
वर्तमान के शहरी मानुष को मालूम कहाँ?
क्या खरही? क्या सावे में है फर्क
कुशाग्र का उन्हें मोल ही नहीं पता
सभ्यता के नाम पर भले ढ़कोसला कर ले
पर...!
संस्कृति कहीं तड़प-तड़प कर दम तोड़ रही।
कहाँ गये वे बच्चे?
जो, फतंगे के पूँछ को धागे में बाँध
कुआँ के मुँडेर से लटक मेढ़क को लुभाते थे।
कहाँ गये वे बच्चे?
जो, कटहल के पत्ते में झाड़ू का सींक घुसा कर
घिड़नी बना दौड़ लगाते थे।
किसके घर के चूल्हे में क्या पकवान बना है?
अब पता चलता कहाँ है
उन्हें भी जो घर के अंदर ही सो रहा है
वो जमाने और थे
जब माटी के चूल्हे में
गोबर के कंडे में रोटिया सेंक
समस्त कुटुंब तृप्त हो जाया करता था
ये जमाना और है
जीवन में तीव्रता तो है
परंतु सहजता, सरलता, सुगमता नहीं
मशीनों ने भले सरल जीवन किया है
पर, छीन लिया
माँ के हाथों की खुशबू
छीन लिया है
खाना खाते समय आने वाले
पसीने को पोछे जाने वाले
माँ के आँचल के पल्लू
छीन लिया है
पत्नी से खाते वक्त पंखा झलते हुए
दुनियादारी की बातें
छीन लिया है
बहन से दौड़ कर लौटा भर पानी लाने जाना