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Prashant Shinde

Inspirational

3.3  

Prashant Shinde

Inspirational

आई..

आई..

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आई...!

अभंग(६६६४)


आई आई आई। एक माझी आई।

तिला सदा घायी।जेवणाची।।

लेकरू मी तिचे।लाडके दोडके।

घालते साकडे।माझ्या साठी।।

पाणी ते गरम।बाजूस काढते।

हाताने ओतते।डोक्यावर।।

थय थयाटात। अंघोळ उरके।

नाहीच पोरके।कधी केले।।

हाताने भरवी।घास सुमधूर।

लागलासे सूर।जीवनास।।

पोट भरोनिया। देतो मी ढेकर।

ताटात भाकर। ठेवोनिया।।

अर्धाच तो घास।चिऊचा काऊचा।

म्हणोनि माऊचा।मुखीसारे।।

त्या घासत ढेरी। तुडुंब भरते।

काही न उरते।ताटामध्ये।।

सुखावते माय।पाहून लेकरू।

सदैव कोकरू।घेवोनिया।।

आईचा जिव्हाळा।हृदयी अतूट।

जणू वज्रमुठ ।जिवालागीं।।

आई ही आईच। तिला नाही तोड।

किती नाते जोड।प्रारब्धात।।

एकच ती नाळ।अखंड अतूट।

जन्म मृत्यूची ही। खूणगाठ।।

आई पोटीजन्म। आईच जीवन।

आईच पावन। चिरंतन।।

आईस अर्पण।सारे सारे कर्म।

हाच खरा धर्म।जन्मोजन्मी।।

आई परमेश्वर। आईच ईश्वर।

देह हा नश्वर।असे जरी।।

तरी मी पाहतो। ईश्वर देहात।

आईच्या मायेत।सुखासुखे।।


©प्रशांत शिंदे,कोल्हापूर

prashants9606@gmail. com

8007740679


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