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ढ़कोसला

ढ़कोसला

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न...न..ना आज के दिन की गई मर्द के मुँह से

स्त्री के लिए तारीफ़ से मुझे एैतराज़ है

क्या साल में सिर्फ़ एक ही दिन की तारीफ़ की हकदार है

मैं ये नहीं कहती की रोज़ एेसी पोस्ट डालों

ये पोस्ट मायने ही नहीं रखती

मायने रखता है आपका ये लिखना यही मान सन्मान

आपके व्यवहार में हर स्त्री के लिये रोज़ दिखे,

तो इस दिवस को मनाने की जरुरत ही नहीं है...!

पहले स्त्री को ठीक से जानों तो सही

उसकी अहमियत को पहचानों तो सही

बस तुम अपनी नज़रों को ठीक करो मर्द जात

औरतों को ना पोइंट आउट करो...!


हमारे देश में बच्चे के जनम से ही

उसकी बेलेंस सीट बनाई जाती है

लडका हुआ तो संपत्ति

लडकी हुइ तो जिम्मेदारी

संपत्ति की खुशी में पेडें बांटे जाते है

और जिम्मेदारी के जनम पे जलेबियाँ

लडकीयां कपूर की तरह होती है

संस्कारों की तीली से जला दो

कूल में उजियारा फैलाती है...!


२१ वी सदी का मर्द भी औरतों को

परंपरागत काम करते ही देखने का आदि है

उन्हें बुद्धिमान औरत की संगत तो पसंद है पर

सशक्त महिला का जीवन भर का साथ

उनके अहं को चोट पहूँचाता है..!


आये लहर कोई ऐसी की मुखौटा हटे

हर अधिष्ठाता के चेहरे से फिर देखें की

स्त्री के लिए असली मुँह से

कितनी फूलझड़ीयाँ फूटती है तारीफ़ में

इस ढ़कोसले को सही में रोज़

दोहराया जाता तो सच में

नारी के लिए एक नया समाज ही दिखता...!


कुछ मर्द वाकइ में औरतों के कद्रदान होते है

पर ज़्यादातर मर्द खुद को औरतों के लिये

खुले खयालात के बताते तो है ,

पर उनके मन के किसी कोने में ऐक

अहं की गांठ छुपाये होता है

जिसे कहते है 'मेल इगो'

बस जिस दिन वो गांठ खुल जायेगी

तभी समाज बनेगा ऐकरुप सा...!


पर हर नारी को मैं इतना ही कहूँगी

तेरे वजूद से है इस गुलिस्तां में रौनकें सारी,

तेरे बगैर इस दुनियाँ को, हम वीरान लिखते हैं॥


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