कविमति
कविमति
मैं अनुसरणों के गीतों का भाव नहीं बनने वाला
मैं कविताई के चरणों का घाव नहीं बनने वाला
मेरी कलमें केवल लिखती हैं झूठे पैमानों पर
कोरे कोरे दिखने वाले मानों पर अभिमानों पर
मेरी कलमें दोधारी हैं शोणित अर्पण करता हूँ
मैं पाखंडों के नयनों के आगे दर्पण धरता हूँ
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मेरी कलमें भी रोती हैं जब जब सैनिक मरता है
घर के सारे वचन भुलाकर सीमा पर सर धरता है
जब चूड़ी की खन खन के स्वर टूटन राग सुनाते हैं
गमनकाल सैनिक जब कहता बस जल्दी ही आते हैं
जब सरकारें पंगु होकर मनचाही कर देती है
तब तब मेरी कलमें आँसू को स्याही कर देती हैं
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मेरी कलमें भी इठलाती हैं सावन के झूलों पर
फिरती गुलशन में मदमाती ये सबरंगी फूलों पर
यही प्रेयसी के गजरों की भीनी ख़ुशबू से सनती
कभी प्रणय आमंत्रण में यह मधुरविरोधी सी तनती
पल वियोग फूलों में ख़ुशबू जब घुट के रह जाती हैं
मधुबन का कोना कोना ये ही कलमें महकाती है
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मेरी कलमों में पानी है वीरों की तलवारों सा
अक्षर अक्षर रणभेरी है छंद छंद प्रतिकारों सा
कभी कभी चिंगारी बन कर भीतर ही निर्धूम उठे
दावानल सी पावक भी है धू धू उर में धूम उठे
जब सिंहासन की चौखट पर कोई अर्ज़ ना होती है
तब समाज के मौनपटल पर कलमगर्जना होती है