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"जिजीविषा"

"जिजीविषा"

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सँजो लो अपने भीतर

मुझे बाहर लाने का साहस

   बाद में.

मैं ख़ुद लड़ लूँगी

अपने अस्तित्व की लड़ाई

तुम्हें बचाना है,मेरा आज

बिना इस भय के

क्या होगा मेरा कल?

मुझे चाहिऐ थोड़ी सी जगह

तुम्हारी कोख में

अंकुर बन फूटने को

  बाद में.

अपने विस्तार और विकास के रास्ते

  मैं ख़ुद तलाश लूँगी

अपनी पूरी ताक़त लगाकर

मैं उछलूँगी क्रीड़ाऐं करूँगी

 और तुम्हें दिलाती रहूँगी

अपने वजूद का एहसास

कली और ख़ुशबू बनकर मुस्कुराऊँगी

तुम्हारे सपनों में

  मेरे सौंदर्य और कौमार्य के

कुचले जाने का डर बता

तुम्हें भरमाया जाऐगा

पर तुम मत हारना हिम्मत

मुझे पनपने देना,और जीना

मेरे पनपने के एहसास को

  बाद में.

मुझे अपने हिस्से की

ज़मीन-आसमान पाने से

कहाँ कोई रोक सकता है

  नदी ख़ुद बनाती है अपना रास्ता

मैं मौसम में उतरूँगी ,तैरूँगी, फुदकूँगी

कलियों के शोख रंगों में चटकूँगी

जिऊँगी मैं

अपने स्त्रीत्व की सम्पूर्णता को

देखो तो

पत्थर की शिला में भी

  फूटे हैं तृणांकुर

 ढेर सारी, नई-नई कोंपलें

 वे तो नहीं हैं, उसका हिस्सा

फिर भी

वो समेटे है उन्हें आश्रयदाता बनकर

बिना डरे अभयदान देकर

   ..और मैं

मैं तो तुम्हारे वजूद का हिस्सा हूँ माँ

सृष्टि का अनुपम उपहार हूँ

आने दो मुझे अपने अंक में

अपनी दुनिया में

और जियो

इस गर्वीले क्षण को

एक विजेता की तरह

 

 


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