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मौत

मौत

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जब भी सोता था

नींदों पर,

खवाहिशों का ढेरा होता था।

बोझिल आँखों में नींदों से ज़्यादा

सपनों का वज़न होता था।


कितना भी थका होता था फिर भी,

ख़्वाबें जगा दिया करती थी।

उनहें पूरा करना है एक दिन

ये फ़रमान सुना दिया करती थी।


भूत और भविष्य मन को,

जकड़न में रखा करते थे ।

सपनों के संग मिलकर ये

तो साजिश रचा करते थे।


मगर आज ये क्या हो गया

उस बेबस सी आँखों को।

खुलती बंद होती उस

बेचैन सी पलकों को।


आज ना कोई ख़्वाब

उसे चौंका ही पा रही।

और ना ख़्वाहिशों की उलझन

जगा ही पा रही।


आज ना नींदों पर किसी

चाहत का पहरा है।

ना रात,अँधेरें से उसे

डरा ही पा रही।


अचानक से हुए बदलाव को

पिर भाँप मैं गया।

कल और आज की नींद में

अंतर समझ गया।


लाख लोग रोते रहें

झकझोर मुझे उठाते रहें।

बेपरवाह सा मैं, बस मुस्कुरा रहा था

पहली बार जो चैन की नींद सोया था।

पहली बार जो चैन की नींद सोया था।


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