गृहिणी
गृहिणी
वो निपुण है सब कार्यों में
पर साधारण गृहिणी कहलाती है
सबकी उम्मीदों पर खरी उतरती
पर खुद के लिए कम रह जाती है
सबके मन का है वो करतीं
अपना मन कहां वो रखती
दूसरे की इच्छा रखने को
खुद का मन मारती है
ये तो सबके लिए जीती
खुद का जीना भूलकर
अपने प्यार के धागे में
घर को बाॅंधें रखती है
सबके लिए है बिखेरती
अपने चेहरे पर मुस्कान
कहां वो दिखा पाती है
अपने अंदर की थकान
बच्चों की सपनीली ऑंखों में
सपने नए संजोती है
परिवार के लोगों में
अटूट विश्वास जगाती है
बिखरे घर को समेट कर
नया सा फिर बनाती है
समय के साथ भागकर
सारे काम निपटाती है
शाम में सबके आने की
दरवाजे पर राह तकती है
सबके थके चेहरों को
मुस्कानों से भरती है
सबको खुशियां बिखेर कर
मन ताजगी से भर देती है
सीने में कई दर्द छुपाए
हॅंसती है चहकती है
तन से मन से दोनों से
जब देखो व्यस्त रहती है
पर कभी उफ्फ़ तक ना करती
सदैव हॅंसती रहती है
ये तो ईंट पत्थर के मकान को
प्यार से घर बनाती है
घर में सबके हिसाब से
वो तो ढल जाती है
भले अपनी ख्वाहिशें रहे अधूरी
दूसरों की तमन्ना करती पूरी
सब पर हो जाए बलिहारी
यही तो है भारतीय नारी
सब के दर्द की है वो मरहम
फ़र्ज़ निभाती पूरे जनम
सारा घर हो जाता ऋणी
वहीं तो है गृहिणी