सूनापन
सूनापन
मेरे गाँव का आँगन भी अब
कुछ सुना-सुना लगता है,
बीचो-बीच लगी 'चौकी' में अब
न वो शान रही, न वो गुरूर रहा।
हाँ मगर लोग अब भी हैं आँगन में,
बस सुकून इतना पसरा है
की कम्बख्त एक पत्ता भी गिरता है
तो लगता है पूरा पेड़ गिर पड़ा हो।
हाँ शायद ऐसा ही कुछ हुआ है आँगन में भी
डाल, पत्ते, तने, फल, फूल सब सलामत है,
बस आज जड़ो ने साथ छोड़ दिया।
बीच आँगन में धान पसरा हैं,
कुछ कबूतर बैठे हैं उसके इर्द-गिर्द,
वो भी अब आजाद हो गए हैं,
उनको भगाने वाली आवाज जो खामोश है।
बाहर खूंटे से गायें बंधी है,
जो भी आसपास से गुजरता है,
एक बार उनको निहारती जरूर है
शायद इस आस में की
वो जो उनकी पुरानी दोस्त थी,
आज भी खाने में कुछ अच्छा ले आए।
एक पानी का लोटा पड़ा है
बिस्तर के साथ खड़े टेबल पर
इस बात से अंजान की अब
उन थरथराते हाथों का उस पर फिर से स्पर्श नहीं होगा।
अब आखिर में वो बिस्तर है,एक तकिया है
और तकिये के साथ में पड़ी वो टॉर्च
सब धीरे-धीरे ये समझने लगे हैं,
कि अब शायद हमारा मालिक बदल गया है,
वो जो हिफाज़त और सलीके से हमें रखा जाता था,
उनमे तब्दीलियाँ आने लगी हैं।
हाँ आँगन अब भी है,
लोगों से भरा हुआ, फिर भी कुछ तो अधूरा है
शायद जिसने उस घर को 'घर' बनाया था
अब सब कुछ छोड़, कहीं घूमने निकला है।