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गुमनाम

गुमनाम

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हम कब
मैं और तुम हो गये
पता ही ना चला,
कब वक्त रिसने लगा
और बूँद-बूँद टपकते गये वो सारे अहसास
जो हमें, एकसूत्र में समाहित किये हुए थे 
कब पेड़ के पत्तों ने, फूलों ने
इंकार करना सीख लिया हमारे इशारे को
पता ही ना चला,
कब गुमनाम हो गये हम
इस शहर के भीड़ में. . . 
कुछ है इस शहर की फिज़ा में
बड़ी तेज़ी से मौसम बदल जाते है
अभी बसंत अपने पूरे यौवन पर आया भी ना था
कि पतझड़ शुरू हो गया,
बहुत गर्म है इस शहर की हवा
इतने आँसू पीकर भी
इतनी शुष्क है कि
एक इंच मुस्कुराहट के बदले
सुर्ख़ होठ सूख कर सफ़ेद हो जाते हैं,
अब नहीं दिखता पूरा चांद आसमान में
तारे भी नहीं दिखते
घास पर लेटे-लेटे पूरी रात निकल जाती है
लगता है आसमान सिमट कर
तब्दील हो गया है
मेरे अँधेरे कमरे की छत में
जिसपर दिखती है
कुछ छिपकिली, कुछ अनजाने कीड़े
डर कर छुपा लेता हूँ
अपना चेहरा तकिये में
मैं इतना डरने कब से लगा
पता ना चला।


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