ग़ज़ल
ग़ज़ल
आग जलती न हो जो चूल्हों में।
फिर यक़ीं क्या रहे उसूलों में।
आदमी ये, वो आदमी तो नहीं ।
याद रहता था जो दुआओं में ।
धूप ने बस छुआ ही था उसको।
बँट गया आफ़ताब टुकड़ों में।
किसका अहसास, किसका है ये असर।
ख़्वाब किसके हैं मेरी आँखों में।
कोई शब भर था मुन्तज़िर, तो कहीं।
रात जलती रही चराग़ों में।
फ़िक्र किसको है आज फूलों की।
जब अक़ीदा रहा बबूलों में।
मेरे मुँह क्या लगी ये सच्चाई।
फिर नशा कब रहा शराबों में।
उसकी आँखों मे जादू मंतर है।
भीड़ कम है शराब ख़ानों में।
कोई मौसम इन्हें नहीं छूता।
लोग पत्थर हुए हैं शहरों में।