माँ का शहज़ादा-दुलारा
माँ का शहज़ादा-दुलारा
घर के हर कोने की रंगत, को चला उजियार कर।
माँ का शहज़ादा-दुलारा, ओझल हुआ, घर पार कर।।
गांव की धूलि से सने, अपने बूट को वह झाड़ कर।
माँ का शहज़ादा-दुलारा, ओझल हुआ, घर पार कर।।
थी यहां की बस्तियों में भी हजारों मस्तियां।
अलबेले थे लोग यहां भी, थी अगर ना हस्तियां।।
पेड़-पौधे, नदी-झरनें, पशु-पक्षी भी साथ में।
तारों के संग चाँद चमकता है यहां भी रात में।।
गिल्लियों को छोड़, व्यर्थ ही, सांसों में उफान भर।
माँ का शहज़ादा-दुलारा, ओझल हुआ, घर पार कर।।
शहर की चौड़ी सड़क तक यह सड़क जाती तो है।
अलग-अजीब ख्वाबों-खिलौनों की खबर लाती तो है।।
पर गांव की किलकारी वहां की गूंज से दब जाएंगी।
छोटे मेले-ठेले-थपकियां फिर तुम्हें ना भाएंगी।।
कश्ती का रुख मोड़, भटकने, वादें-इरादों की धार पर।
माँ का शहज़ादा-दुलारा, ओझल हुआ, घर पार कर।।
धूप से तपती ज़मीन पे, कुछ जगह गीले भी थे।
तुम ज़मीन ना ढूंढ़ पाए, वे सख्त थे ढीले भी थे।।
गेहूं पकने की जो खुशबू ले उड़ी थी तितलियां।
एक दूजे को सुनाते, थे बैल अपनी घंटियां।।
पर तुम अडिग थे, थे निडर, निष्पक्ष धरा के मार्ग पर।
माँ का शहज़ादा-दुलारा, ओझल हुआ, घर पार कर।।
अनजान को जो जानने की अब तुम्हारी चाह है।
अनचाहों में से छानने की अब तुम्हारी राह है।।
तूफान से टकरा, मिलेगी फिर तुम्हे साहिल कहीं।
जंग की तैयारियों में, जशन भी होगी वहीं।।
जीत से जब थक गए तो चले आना हार कर।
माँ का शहज़ादा-दुलारा, ओझल हुआ, घर पार कर।।