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नीति

नीति

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धृतराष्ट्र,

महाभारत का सबसे निरीह पात्र,

विकराल युद्ध का दोष लिए,

किंकर्तव्यविमूढ़ सा खड़ा है,

यक्षप्रश्न के द्वार पर।


अपने पराये सबका अभिमान गल रहा है,

सौ पुत्रों का निर्जीव शरीर धू-धू करके गल रहा है,

भीष्म का पौरुष, द्रोण का ज्ञान, कृपाचार्य की नीति,

अन्तोगत्वा सब इस अँधे को ही छल रहा है,

विदुर , मुझे बताओ और समझाओ।


इतिहास इतना बड़ा अन्याय

मेरे साथ कैसे कर सकता है,

अनगिनत योद्धाओं की मृत्यु का भार

मेरे सिर कैसे धर सकता है,


मैं भी तो भरत वंशी हूँ,

मैंने भी गंगा का ध्यान किया है,

आने वाले अनंत काल तक कैसे मुझे

आत्मग्लानि से भर सकता है।


क्या भारत का इतिहास मुझे

स्वार्थी पिता के रूप में ही जानेगा,

गांधारी सी पत्नीव्रता को एक

नेत्रविहीन का सहारा मात्र मानेगा,


गदा प्रवीण मेरे पुत्र दुर्योधन को

मात्र हठी ही पहचानेगा।

संसार सारा मेरी बुद्धि और

नैतिकता पर भृकुटि ही तानेगा।


परन्तु त्याग तो मैंने भी किया है,

पांडु के पुत्रों को भी जिया है,

हस्तिनापुर का सम्मान किया है,

शान्तनु के वंशज को स्वाभिमान दिया है।


फिर मैं ही इस उपेक्षा का भागी क्यों ?

प्रभाकर से दीप्त साम्राज्य में मैं ही दागी क्यों ?

समय का कालचक्र युगों-युगों से घूम कर भी,

महाभारत के सबसे कमजोर पात्र पर ही हावी क्यों ?


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