सनातन भारती
सनातन भारती
क्या दे सका द्वापर का युग मानव में भर प्रतिशोध को
क्या हुआ तत्व कुछ और प्रखर पाकर मनुज के क्रोध को
कल तक की उस धर्म भूमि पर आज दृष्टि जब जाती है
शोणित से रंजित वसुंधरा मानो यह प्रश्न उठाती है
कैसा है धर्म, किसका अधर्म? किसके न्याय की बात हुई?
या द्वेष दम्भ का सूर्य उगा, सम्पूर्ण धरा नि:स्वाह हुई?
कैसा विकास मानवता का, पीछे मानव की प्रीत हुई
जाने कहाँ कौन हारा औ जाने किसकी जीत हुई?
इस हार-जीत के महा द्वन्द्व
में जाने कहाँ फँसे थे हम
पर तब से लेकर वर्तमान तक विष के बीज रहे हैं हम
रह-रहकर यह विष का पौधा विकराल रूप धर लेता है
कुरुक्षेत्र सा 'धर्मयुद्ध' सबके सम्मुख कर देता है।
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धर्मयुद्ध छिड़ जाने पर फिर कौन धर्म का ध्यान करे
हार-जीत जब हो समक्ष तब कौन सुधा रस पान करे
समर भूमि में विजय कामना जब नर पर भरमाती है
धर्मराज की जिह्वा भी फिर सत्य नहीं कह पाती है
वीर धनुर्धर अर्जुन भी हो इसी भावना से प्रेरित
करता निहत है भीष्म पिता को, करके कर्म महा कुत्सित
हार-जीत की घृणित कथा अर्जुन-कुमार भी कहता है
उन सप्त-रथी का घोर कलंक इतिहास आज तक सहता है
जाने कैसे वे धर्म विज्ञ, जाने कैसे वे गुरु आचार्य
थे सबको लिए हुए पातक, कर पामरों से घृणित कार्य
अभिमन्यु चरित अति पावन, कैसे उसका गुण-गान करें
लेखनी हार गई कहकर बस भाव हृदय में मान धरें
हा! धिक् धिक् हैं वो शूरवीर जो युद्ध नियम को तोड़ लड़े
उस एक रथी को सप्त रथी चहुँ ओर घेर कर युद्ध लड़े
पर युद्धभूमि को तपो भूमि कैसे नर वीर बनाएगा
कैसे वह अपना स्वत्व-धर्म समर बीच निभाएगा?
धर्म ज्योति में जलकर जो, दिनकर-प्रकाश फैला सकता
तिमिर निशा में ग्रसित धरा को पुनः भोरमय कर सकता
वही मनुज जब लक्ष्य प्राप्ति हित साधन को तुच्छ समझता है
कालग्रन्थ में निज का प्रकरण, कलुषित वह कर देता है
क्या भरत वंश के कुल दीपक भी शेक्सपियर को मानेंगे?
"युद्ध में सभी कुछ पावन है", यह कथन सत्य कर जायेंगे?
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गरल पान करके ही मानव समर-भूमि में आता है
वही मनुज से प्रतिशोध हित नीच कर्म करवाता है
प्रतिशोध का यह कलंक मानव समाज पर भारी है
इसके बोझ तले रोते जाने कितने नर-नारी हैं
प्रतिकार करके अधर्म का मानव पुण्य कमाता है
कालग्रन्थ का नवल सृजन फिर एक बार कर जाता है
पर प्रतिशोध के लाक्ष भवन में जब वह पाँव बढ़ाता है
द्वेष-द्रोह की पंक भूमि में स्वतः मलिन हो जाता है
सत्य है की पाण्डु-नन्दन तो निज न्यास खोजते आए थे
पर कुरुक्षेत्र में बर्बरता का तत्व कहाँ से लाये थे?
पीकर छाती का तप्त रुधिर औ भुजा उखाड़ दुःशासन की
प्रतिशोध तो पूर्ण हुआ पर हार हुई मानवता की
जाने कैसा यह क्षात्र-धर्म जो भीमसेन ने सीखा था
या द्रुपद-सुता के खुले केश ने इसको वर्षों सींचा था
प्रतिशोध का जब भुजंग मानव-विवेक को हरता है
इंद्रप्रस्थ का अंत सदा वह द्यूत भवन से करता है
बस इसी तरह से एक कड़ी पिछली कड़ी से जुड़ जाती है
कड़ियों की फिर यही श्रृंखला कुरुक्षेत्र पहुंचाती है
शत कड़ियों में एक कड़ी पर मानव मन टिक जाता है
और कुरुक्षेत्र का निर्माता वह उस कड़ी को बतलाता है
कोई कहता की कुरुक्षेत्र की प्रथम कड़ी पांचाली थी
कोई प्रथम कड़ी को कहता लाक्ष-भवन चिंगारी थी
कोई द्यूत भवन को कहकर उस पर सब दोष लगाता है
कोई गीता की मंगल वाणी पर आरोप लगाता है
शारदे! इन आरोपों के मध्य फँसी निष्प्राण लेखनी लिखती जाती
पर कवि का अंतर इतना व्याकुल जाने क्यों नहीं फटती छाती
इन आरोपों के लेन-देन में सदा मनुजता रोती है
जाने मानव की कौन समस्या इस प्रकार हल होती है?
जाने कैसी वह युद्ध-कामना धृतराष्ट्र पर छाई थी?
जिससे प्रेरित होकर उसने भारत में आग लगाई थी
है प्रथम कड़ी का ज्ञान कठिन, पर संधि-वार्ता जो विफल करे
लाखों की जान बचाने को, जो पाँच ग्राम भी दे न सके
ऐसा क्रूर-कराल मनुज जब जनता का नेता बनता है
कालग्रन्थ का सृजन सदा तब नर शोणित से करता है
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जो हो गया, सो हो गया! अब नींद से जागो सभी
यूँ बात कर इतिहास की क्या पा सके को कुछ कभी?
है विगत वृतांत सबका, उज्ज्वल कलंकित एक-सा
थोड़े-बहुत के भेद से, बनता नहीं नर देवता
छोड़ो पुरातन बातें आओ अब विचारें कुछ नया
क्या युद्ध करना उस विषय पर अलविदा जो कह गया
या भूत पर मिलकर लड़ो, या वर्तमान सुधार लो
गर हो सके तो भव्य भारत के सृजन का भार लो
प्रतिशोध की पातक प्रभा सबको कलंकित कर रही
दो भाइयों में भी द्रुपद के, द्रोणा के गुण भर रही
इसकी पतित दावाग्नि का जब, भार उठ पाता नहीं
मानव नयी पीढ़ी को इसका भार दे त्यजता मही
सोचो की द्वेषाग्नि में जलकर हो रहा कितना पतन
थे किस शिखर पर तुम कभी, अब आ गए हो किस वतन?
पहचान में आता नहीं, यह हाल जो अपना हुआ,
भगवान जाने, क्या पुरातन पाप है जो धुल रहा?
जागो की डंका है बजा, कुरुक्षेत्र का अब तक नहीं
जागो की ताण्डव को हुआ, प्रेरित अभी शंकर नहीं
जागो की अगली पीढ़ी तुमको देखकर बोले नहीं
"प्रतिशोध के कारण हुई, फिर रक्त-रंजित यह मही
विद्वेष की आंधी चली, सर्वस्व अपना खो गया
भगवान! भारतवर्ष प्यारा नींद गहरी सो गया
इस नींद से जागें प्रभो! जब तक हमारे नेतृगण
आपस की रंजिश में हुआ, हा! हा! हरे! सबका मरण"
आश्चर्य की निज पूर्वजों के हित वचन कहते यही
पर दुःख की बीते युगों से सीख लेते हो नहीं
इतिहास से सीखे ना जो, इतिहास दोहराता वही
है यह सनातन सत्य लेकिन, नर समझ पाता नहीं
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पूछ रहा है आज महाभारत का कलुषित काल
हे भारत! निज नेत्र खोल, और कह तू अपना हाल
तेरे पुत्रों ने मेरी संततियों से क्या सीखा?
द्वेष-दम्भ के परे उन्हें क्या जीवन में कुछ दीखा?
क्या कुरीतियों पर विवेक का डंका अब है बजता?
या द्यूत भवन में अब भी नियमों का ही शासन चलता
जाने मेरी संततियों ने राग कौन सा गाया
युद्ध नियम सब तोड़ दिए पर द्यूत नियम था निभाया
क्या समाज के ठेकेदारों पर ममता हुई भारी
या अनचाहे बालक का पलना, है अब भी वही-वही पिटारी?
क्या द्रोण-पुत्र और सूत-पुत्र का भेद मिटा तू पाया?
क्या दोनों के हित ज्ञान का द्वार खोल तू पाया?
मेधावी एकलव्य आज क्या पूजित हो सकता है?
अर्जुन के प्रिय गुरु द्रोण से, रक्षित रह सकता है?
परशुराम कब सूत-पुत्र हित अपना व्रत तोड़ेंगे?
मनुज-जन्म के परे, कभी तो प्रतिभा को तोलेंगे
प्रतिभा का उत्थान जहाँ हो, मनुज-जन्म का चाकर
सत्य जान की अस्त हो चुका, उस वसुधा का दिवाकर
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सीखो कुछ तो बीते युग से, ओ भारत के वासी!
त्यजो निराशा, त्यजो उदासी, बनो मनः सन्यासी
शस्त्र-शास्त्र का हो फिर संगम, भीष्म पितामह जैसा
सत्कर्मों को मिले मान फिर, भले वंश को कैसा
ज्ञान-दान की बहे धार, जो करे धरा को पूरित
करो समर्पित निज का जीवन, पुनः भव्य भारत हित
सूर्यपुत्र सम दानी बन ओ वीरों सम्मुख आओ
एक बार फिर पुनः स्वर्ग को खींच धरा पर लाओ
ऊँच-नीच का भेद मिटाकर बनो कर्म के पूजक
ज्योति-तिमिर के कुरुक्षेत्र में बनो ज्योति के पूरक
कीर्ति पताका अमर हिमालय सी लहराए गगन में
या नित नूतन निर्माण करो तुम, बनकर नींव भवन में
करो योग निष्काम कर्म से, पढ़ गीता की वाणी
करो प्रेम प्रत्येक मनुज से, बन शाक्य मुनि सम प्राणी।