चाँद...
चाँद...
कल रात चाँद को देखा
बादलों की ओड़ में
काले नीले उस रमणीय नभ में
सुंदरता का खज़ाना था,
पूर्णमासी का चाँद लगता
जाना और पहचाना था।
अपनी सुंदरता को कभी
जग से छिपा जाता था
कभी इक पल में आ
चाँदनी बिखरा वो जाता था
पल पल का वो चित्र
आंखों में ऐसा सिमटा है
जब देखती हूँ ,वही
दृश्य नयनो के समक्ष बन जाता है
ठीक ही है ईश ने किया
चाँद के चेहरे को
दाग से है नवाज़ दिया
गर ऐसा ना किया होता
तो इस ज़ालिम ज़माने की
नज़रों का दाग उसे
लग गया होता
देखते ही देखते उसकी
खुबसूरती उससे छीन जाती
उसकी शीतलता उससे रूठ जाती
उसकी कोमलता ही उसकी
कातिल बन जाती
कातिल बन जाती।।