दंगा
दंगा
मिल कर लड़ा गोरों से,
उनको भगा खुद लड़ने लगे।
दुश्मन तो अच्छा लगने लगा,
खुद एक दूसरे को बुरे लगने लगे।
याद करो बँटवारा सन 47 का
दोनों ने ही कीमत चुकाई थी,
खोये थे दोनों ने ही अपने
अस्मत सम्पत्ति दोनों ने लुटाई थी।
तीसरी पीढ़ी भी वो दंश झेल रही,
और कितनी पीढियों को रूलाओगे?
अरे पूछो दर्द किसी सिक्ख से,
गुरू गोविंद ने क्या नहीँ खोया था?
फ़िर भी सन चौरासी में खूब
कीमत उन्होंने चुकाई थी।
छियासी में किया था काश्मीर को
हिन्दू विहीन, खूब बकरीद मनाई थी,
नवासी में काशी और बिहार ने
दोनों और से बलि चढ़ायी थी
बानवे का छह दिसम्बर,
कहो किसको याद नहीँ?
दो हजार दो ने किया कुछ ऐसा
कि खाई अब और गहरी हो चली है।
दो हजार छह में अलीगढ़ में
कुछ कब्र बनी, कुछ लाशें जली।
दस में बंगाल, बारह में असम ने
दोनों और आग लगाई है।
याद करो दो हजार तेरह को
मुजफ्फरपुर जब सुलग उठा था।
इतना लड़ चुके हम, कट चुके हम
अब तो गिनती भी दंगो की याद नहीं।
और कितना लड़ोगे, अपनी जमीं को
अपने ही लहू से यारो, कितना रंगोगे?
सियासत के इस खेल को, ख़त्म हो जाने दो।
जात धर्म की खाई को, अब तो भर जाने दो।