ऐ विहग, नहीं ये हिन्द तेरा
ऐ विहग, नहीं ये हिन्द तेरा
ऐ विहग, नहीं ये हिन्द तेरा
कहाँ नीढ़, कहाँ खग वृन्द तेरा?
रौशन हैं चाँद सितारों से
फिर भी नभ ये आबाद नहीं,
और तृषित मेघ के गर्जन में
गूंजे सोहम का नाद नहीं।
हिम का कन्धा, पग गंगा का
ढूंढें बेकल प्रतिबिम्ब तेरा,
ऐ विहग, नहीं ये हिन्द तेरा
कहाँनीढ़, कहाँखगवृन्दतेरा ?
भरते यहाँ प्याले मदिरा के
पर अधजल प्रेम की गागर है,
है प्यासा तू उस घूंटी का,
छलके जिसमें स्नेहसागर है।
इस पार नहीं उस पार मिलेगी
प्रेम सुधा से तरलधरा।
ऐ विहग, नहीं ये हिन्द तेरा,
कहाँ नीढ़, कहाँ खग वृन्द तेरा?
लिए चला तू तिनके नीढ़ बनाने
आई डाली न रास कोई,
लगा सदा पराया भूखंड वो
जहाँ तेरा न इतिहास कोई।
इस भूमि की मिट्टी में दिखता
धुमिल अपूर्ण सा चिह्न तेरा।
ऐविहग, नहीं ये हिन्द तेरा,
कहाँ नीढ़, कहाँ खगवृन्द तेरा?
जब क्षितिज पे बिखरे रंगोली,
और विदा हो सूरज की डोली,
तू पूर्व दिशा को ताके है,
नीली खिड़की से झाँके है,
उस छोर जहाँ, उस ओर जहाँ,
है नीढ़ तेरा, खगवृन्द तेरा।
ऐ विहग नहींं ये हिन्द तेरा!
ऐ विहग नहींं ये हिन्द तेरा!