सिसकी
सिसकी
उस दिन बड़ी घनेरी रात थी,
जब सुनी मैंने सिसकी की आवाज़ थी।
आँख खुली जब उस घनेरी रात में,
सोचा छुपी है सिसकी किसकी याद में।
वो शायद एक दर्द भरा राज़ था ,
जब सुनी मैंने सिसकी की आवाज थी।
बस कुछ दूर तक मैं चलता रहा,
उन्हीं सिसकियों की तरफ बढ़ता रहा।
चाँद था पूरा और चाँदनी रात थी,
जाने किसकी सिसकी की आवाज थी।
सन्नाटा छा गया था सारी गलियों में,
फूल भी बंद हो गए थे कलियों में।
वहां किसी ने भी नहीं छेड़ा साज़ था ,
जाने किसकी सिसकी की आवाज़ थी।
बस रात भर यूँ ही भटकता रहा,
मन को एक ही बात खटकता रहा।
लौट आया घर को जब बीती रात थी,
नहीं मिली कोई सिसकी की आवाज थी।
पहुँचा घर को जब आखिर सोने मैं,
दर्पण पड़ी थी घर के दूसरे कोने में।
सिसकी दिखी फिर मुझे उदास थी,
अब समझा वो मेरी ही आवाज़ थी।