"कंकर"
"कंकर"
बचपन में मेरी नानी,
चावल से कंकर चुनती थी।
बड़ी होशियारी से वह,
एक एक कंकर निकालती थी।
कुछ ऐसी कुष्लता से,
की एक भी न छूटे।
ज़िंदगी भर कई बोरियों से,
निकाले उसने अनगिनत कंकर।
कभी यूँ ही, कभी चश्मा लगाकर।
कभी त्योहारों पर तो कभी,
मेहमानों के आगमन पर।
कभी ख़ुशी से, कभी बिमारी में,
मेरी नानी ने चुन चुन निकाले
चावल से कितने कंकर।
नासमझ मैं जब पूछता नानी से,
नानी क्या करोगी इन कंकरों का ?
क्यों इतना मोह इनके संचयनि का?
तो बस मुस्कुरा देती थी नानी।
ख़ुशी में भी वही मुस्कान,
बीमार होने पर भी वही मुस्कान।
पर छोड़ा नहीं उसने कभी,
उन हज़ारों श्वेत दानों में छुपे,
अदृश्य बैठे काले कंकर चुनना।
नानी जब इस काम से रिटायर हुई,
तो माँ से कभी कभार,
छूट जाता था एकाध कंकर।
तब 'कड़ाके' याद आ जाती थी नानी।
और जब माँ भी रिटायर हुई
तब पता चला की मोह तो,
कंकर जमा करने का न था,
क्यों की कंकर कभी
पकाऐ ही नहीं थे
ना नानी ने
ना माँ ने
जब भी खाने बैठता हूँ
तो आज भी ये श्वेत दाने
बस नानी की तरह ही
हल्का सा मुस्कराते है
और माँ की याद दिलाते हैं।
चुनना और छोड़ना बताते हैं।