संध्या का वियोग
संध्या का वियोग
पहुंचाना प्रिय संदेश मेरा स्वामी तक
कहना आए वे क्यों ना अब तक?
रुठे से तुम दूर कहाँ जाते हो
किरणों को सिमटाए ले जाते हो
आंध्रपि के पीछे क्षितिज के नीचे
क्या छिप-छिप कर रहे सोचते
फिर प्रातः को तुम मुझे खोजते
पाते जीवन में कभी नहीं तुम
बस आगे मेरे सदैव भागते
अरे विवेक से अंकात लगा
ढूँढ और मेरा पता लगा
कब तक अंगुलिया निर्देश सहता रहेगा
घुट-घुट कर मरता रहेगा
संध्या रुक अंकमाल कर
प्रेम दो घड़ी का प्राप्त कर
पर ठहरा तू मुर्ख जीवन भर
कर सकेगा ना कार्य रत्ती भर
अंगारीणि पश्चिम बनी है
संध्या स्वागत को खड़ी है
पयोद अंकुर से सने हैं
मेरे स्वागत में खड़े हैं
पर हे दिवाकर क्या कहूँ तुझको मैं अंक
भले हो तेरी असंख्य आंखड़ी
पर छू नहीं मुझको सकेगा तू कभी
पर आ रही हूँ पीछे अभी
विहग अपने अंकुरन में सो रहे
पर ,पा तुम्हें ,सब भूल मुझको उड़ चलें
और अंगी भी सभी उठ पड़े
और स्वागत में तेरे हैं सब खड़े
आंसू भर में अंखड़ी में विदा
गिरती ओस बन करके सदा
और मैं होती है विदा.