औरत की जात -
औरत की जात -
न औकात न बिसात
औरत की जात
न औकात न बिसात ,
घर की न घाट की
पलड़े पर चढ़ी बँदर बाँट सी ,
सूरज कब निकला और कब डूबा
उतरी चाँदनी कब उसके आँगन
तारे चमके कब आसमान पर ,
चूल्हे से बँधी , चूल्हे से लगी
उपले - राख , लकड़ी - काठी
अकूत सम्पदा की स्वामिनी
घर की लक्ष्मी , लक्ष्मी से छूछी
हिसाब न किताब
काम ही काम ,
कविता न कहानी ,
न दोहा - चौपाई
टूटते तन को , हारे मन को
ढले रात झिलंगी चारपाई
चौका - भंडार में बरकत जिससे
अन्नपूर्णा के नाम आखिरी जली रोटी
न भाजी न साग ,
धुआँती आँखों से गिरते पानी से गटकती कंठ में
अटकी रोटी ,
ऊँघता घर - आँगन बुहार ,
दिया जला चूल्हे को आँच
आग जलाना , रोज यही किस्सा दोहराना ,
चूल्हे संग हर एक सुबह ,
चूल्हे संग उसकी हर रात
पूरब से पश्चिम चलकर सूरज कब उतरा तलैया के पार ,
अन्नपूर्णा गृहिणी को तो बस चूल्हे से ही काम ,
ताम - झाम चूल्हे के सारे
किससे बाँटे मन की बात ?
औरत की जात - न औकात , न बिसात .....