दो बूँद
दो बूँद
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अब दिनोंदिन
धरती तप रही है
जैसे चूल्हे पर रक्खा तवा
समुद्रों में आते हैं तूफ़ान
नदियाँ लाज से
सिकुड़ती हैं
सरोवर बदल रहे नालों में
पोखरों के पानी पर
जम गई पीली काई
कुऐं और बावड़ियाँ
दृष्टिहीन
बादल
कुशल अभिनेता
प्यास छटपटा रही
रेगिस्तान से
मृगजल पाने को
चन्द्रमा निष्प्राण
मंगल दे रहा
अमांगलिक निमन्त्रण अब
गंगा लौट रही शिव-जटाओं में
यमुना की दुर्दशा
यम से न देखी जाती
मायके ले जाने के मिलते संकेत
चलें अब
अमेरिका के पीछे
और करें रुख़
आकाशगंगा की तरफ़
पुरखों के तर्पण के लिऐ
शायद
दो बूँद जल
हमको मिल जाऐ
ब्लैकहोल में
अदृश्य होने से पूर्व