सच और झूठ का भेद
सच और झूठ का भेद
वो क्या मजबूरी होती है,
जो सच्चाई को गहराई तक
नापने के बाद भी मुँह पर ताले लगा देती है ।
हर पूरी होती कहानी को मंझधार में ही
छोड़कर किनारा कर लेती है ।
झूठ की परत मोटी ज़रूर होती है ।
उसकी तहें खोलते खोलते सदियाँ
ज़रूर बीत जाती है ।
लेकिन एक दिन खुलती ज़रूर है ।
फिर सच इतना मजबूत हो जाता है कि
झूठ के लिए उसे भेदना नामुमकिन हो जाता है ।
बस यहीं से सतयुग शुरू होता है ।