शहर का आदमी
शहर का आदमी
रोज सबेरे उठकर
सोते हुए बेटे के माथे का
चुम्बन लेता हूँ।
नहाता हूँ, खाता हूँ,
और चल पड़ता हूँ
दिन की लड़ाई के लिए।
लड़ता हूँ दिनभर अथक,
ताकि
पत्नी को मिले सुकून,
बेटे को दुलार,
भाई को स्नेह,
और माता-पिता को सम्मान।
फ़िर लौटता हूँ घर,
देर रात को,
हाथ धोता हूँ, खाता हूँ,
सोए हुए बेटे के माथे का
चुम्बन लेता हूँ,
और सो जाता हूँ।
मैं दूर रहता हूँ आपनों से,
अपनों के वास्ते।