गाँधी आश्रम
गाँधी आश्रम
गाँधी आश्रम
आश्रम के पार्श्व में बहती
साबरमती के तट पर पहुँच
जब उसके जल को
करते हुए स्पर्श
सम्पूर्ण श्रद्धा से
मैंने किया प्रणाम
तो एक-एक कर लहरें उठने लगीं
और क्या देखता हूँ
कि लहरें अचानक
मानवाकृति में बदल रही हैं
और बापू उन लहरों पर खड़े हैं
अपनी चिरपरिचित वेशभूषा में
प्रेम से
और करुणा से देखते मेरी ओर
और दाँऐ कर को अभयमुद्रा में उठाते
देते आशीष
बा का कमरा
प्रस्फुटित होती ममता की गन्ध
बापू का वह कमरा
जहाँ वे मिलते अतिथियों से
उनका चरखा,
ऐनक
और खड़ाऊँ,
बापू की लाठी,
उनकी कलम
पेड़-पौधे वहाँ के
गाँधी आश्रम के कण-कण में
मुझे बापू ही दिखे
इतने बापू
जिनकी गणना करना नहीं सम्भव
सत्य वहाँ दिखा मुस्कराता
अपने तेज के साथ,
अहिंसा-
अपनी दृढ़ता के साथ,
क्षमा-विवेक के
और करुणा-अपने पूर्ण वैभव के संग
स्वतन्त्रता दिखी तो ज़रूर,
मगर बापू की
कराह उसमें शामिल थी!
सद्भाव की झलक मिली,
मगर बाबू के दुःख की छाया के तले!
बापू की जीवनयात्रा
जो चित्रों में थी
वह अचानक जैसे जीवंत हुई
आँखों के सामने
चलने लगी रील
गाँधी आश्रम में पहुँच
जैसे हुआ हो बापू से मेरा साक्षात्कार
आमने-सामने का
बापू के देहोत्सर्ग के
सात मास तीन दिन बाद
मैंने लिया इस देह में आकार
और सतमासा बालक
कोई ताज्जुब तो नहीं
आज के युग में!
कोई आश्चर्य नहीं
कि बापू के विराट व्यक्तित्व के एक क्षण का
अति सामान्य अंश लिये
अपने जीवन के छप्पनवें बरस में
पहली बार पहुँचा मैं
बापू के ही बुलावे पर
उनके दर्शनार्थ
उनके आश्रम में।