Legendary Gulzar Sahab
Legendary Gulzar Sahab
अर्श से पिघलकर
नूर का इक क़तरा
छलका था ज़मीं पर कहीं
उसी मिट्टी से बना है ये शख़्स
अल्फ़ाज़ यूँ संग महकते है इसके
जैसे साँसों से बह रहा हो ख़ुमार
कलम को जब वो छुऐ
बेजान पुर्ज़े ज़िंदा होने लगते है
रात की तन्हाई में अक्सर
नज़्म के लरज़ते हुऐ लबों से
चाँद की पेशानी चूमा करता है
वो शायर
यक़ीनन रूह को महसूस करता है ।
एहसास को पीकर
शबनम का इक बादल
बरसा था कायनात में कहीं
उसी बारिश में उगा है ये शख़्स
लफ़्ज़ यूँ संग थिरकते है इसके
जैसे कोई साहिर
बदल रहा हो ख़याल
ज़ेहन की गहराईयों में उतरकर
काग़ज पर जब हर्फ़ रखे
ख़ामोश लम्हे बात करने लगते है
नदी जंगल पहाड़ झरने वादियाँ
हो चाहे कॉस्मिक वर्ल्ड और प्लूटो
हर शय को महसूस करके
नज़्म तख़्लीक़ करने वाला
रूहानियत का वो रहबर
ख़ुशबू जिसकी गुलज़ार है
ख़ुशबू जिसकी "गुलज़ार" ।।