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ग़ज़ल

ग़ज़ल

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चोट खाई ठोकरों से, तबसे चलना आ गया
लड़खड़ाये गिर पड़े,गिरकर संभलना आ गया।
फेंक देते हैं पुराने,जब नया मिलता उन्हें
उनके फ़ेंके उन खिलौनों से बहलना आ गया।
वो तराशा ही किये थे,जब तलक पत्थर के थे
जब से पानी हो गये, साँचे में ढलना आ गया।
सिखंचे,दिवार,हरदम रोकती हैं जिस्म को 
है हवा, हर कैद से, हमको निकलना आ गया।
और भी मगरूर थे वो जब तलक रोया किये
है पड़ा तिनका बताकर, आँख मलना आ गया।
मेरे ग़म को जानकर वो और रुसवा कर गये
मुस्कराहट के तले, चेहरे बदलना आ गया।
हम तलक आती नही हैं, कैद में है रौशनी
पर रगड़ से मुफलिसी की, हम को जलना आ गया ।


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