जिजीविषा का सिंचन जारी है
जिजीविषा का सिंचन जारी है
अपनी उम्र मुझे मालूम है
मालूम है कि जीवन की संध्या
और रात के मध्य कम दूरी है
लेकिन मेरी इच्छा की उम्र
आज भी वही है
अर्जुन और कर्ण
सारथि श्री कृष्ण बनने की
क्षमता आज भी पूर्ववत है
हनुमान की तरह मैं भी सूरज
को एक बार निगलना चाहती हूँ
खाइयों को समंदर की तरह
लाँघना चाहती हूँ
माथे पर उभरे स्वेद कणों की
अलग अलग व्याख्या
करना चाहती हूँ
आकाश को छू लेने की
ख़्वाहिश लिए
आज भी मैं शून्य में
सीढ़ियाँ लगाती हूँ
नन्हीं चींटी का मनोबल लेकर
एक बार नहीं सौ बार
सीढ़ियाँ चढ़ी हूँ
गिरने पर आँख भरी तो है
पर सर पर कोई हाथ रख दे
इस चाह से उबरी मैं
गिरकर उठना सीख गई हूँ ... !
शून्य अपना
सीढ़ियाँ अपनी
चाह अपनी
कई बार आसमान ही
नीचे छलांग लगा लेता है
सूरज मेरी हथेलियों में
दुबक कर
थोड़ा शीतल हो जाता है !
सच है
दर्द और ख़्वाहिश सिर्फ
धरती की नहीं
आकाश की भी होती है
मिलने का प्रयोजन दोनों ही
किसी न किसी माध्यम से करते हैं
मैं कभी धरती से
गुफ्तगू करती हूँ
कभी आसमान को सीने
से लगा लेती हूँ
किसी तार्किक प्रश्न से
कोई फायदा नहीं
उन्हें भी समझाती हूँ।
व्यक्ति कभी कोई
उत्तर नहीं देता
समय देता है
कभी आस्तिक होकर
कभी नास्तिक होकर
मुझे सारे उत्तर समय
असमय मिले
माध्यम कभी अहिंसक
मनोवृति रही
कभी हिंसक
अति निकृष्ट काया भी
दाँत पीसते
भयानक रस निचोड़ते
दर्दनाक अट्टहासों के मध्य
गूढ़ रहस्य का पता दे गई
वाद्य यंत्रों के मधुर
तानों के साथ
किसी ने रास्तों को
बंद कर दिया
श्वेत बालों ने
चेहरे पर उग आई
पगडंडियों ने
पटाक्षेप का इशारा किया
लेकिन,
मेरी चाह है बहुत
कुछ बनने की
जिनी, अलादीन,
सिंड्रेला, लालपरी
बुद्ध, यशोधरा
अर्जुन, कर्ण
एकलव्य और सारथि कृष्ण
कुछ अद्भुत
कुछ रहस्यात्मक
करने की चाह
मेरे सम्पूर्ण शरीर में
टहनियों की तरह फैली है
अबूझ भावनाओं के
फल-फूलों से लदी हुई ये टहनियाँ
संजीवनी है - मेरे लिए भी
और देखे-अनदेखे चेहरों के लिए भी
जिजीविषा का सिंचन जारी है ...