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मेरे पापा

मेरे पापा

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मोतीयों की लड़ी सी 

मरीन ड्राईव की लाईटस

लाखों जवाहरात सी चकाचौंध से

झिलमिलाते महानगर में भी 


शाम होते ही रात के ढलने पर यादों की

बारात चलती है मन के द्वार से..!

मेरी मुलायम हाथों की महक के पीछे

कालीख़ छिपी है मेरे पापा की

बेइंतेहाँ मेहनत से रंगे हाथों की..!


आज सालों बाद मन लौटा है कुछ साल पीछे,

पापा के धूल मिट्टी रंजीत पैर ओर मेहनतकश

हाथों की याद ले चली है, गाँव के छोटे से घर की

दहलीज़ पर बैठे चावल चुनती माँ की गोद में..!


भोर होते ही स्फूर्ति से सराबोर

रोटी के जुगाड़ में पापा निकल जाते थे,

रात होते लौटते थे थके हारे खुरदरे

काले धूल मिट्टी ग्रसित हाथों से

थप थपाकर मेरा सर प्यार जताते थे..!


एक सुकून भरी हँसी उनकी आँखों में

ठहर जाती थी मानो दूसरे दिन की

जद्दोजहद से निपटने की उर्जा

मिलती थी मेरी मुस्कुराहट से..!


पीछे छूटे पुराने लमहे स्मृतियों में आन बसते है 

ना मुझे नहीं बनाया अपने जैसा अदना सा मज़दूर,

कड़ी मेहनत से पढ़ा लिखाकर बिठाया टेबल कुर्सी पर..!


कैसे भूल सकता हूँ उस फरिश्ते के एहसान

जो खुद दो जोड़ कपड़े में सालों काटकर

मेरे हर शौक़ पूरे करते रहे,

खुद चलकर पैर घिसते रहे मुझे

साइकिल दिलवाने के लिए..!

अपनी खाल के जूते बनवाकर भी पहनाऊँ तो भी

भरपाई नहीं होगी, उस नि:स्वार्थ प्यार का बदला॥



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