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मंदिर मन्दिर चढ़ जाने को -Poem

मंदिर मन्दिर चढ़ जाने को -Poem

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मंदिर मन्दिर चढ़ जाने को

बाड़ लगाओ बढ़ जाने को


दीपों के उजियार में गंगा

श्रृंगारों के प्यार में गंगा

घाटों के व्यवहार में गंगा

पानी के व्योपार में गंगा

धर्म ध्वज के रार में गंगा

निथरे जल की धार में गंगा

फिर गंगा ! गंगा के सायों

के अंतर में पड़ जाने को

बाड़ लगाओ बढ़ जाने को


मंदिर मन्दिर चढ़ जाने को

बाड़ लगाओ बढ़ जाने को


हिरणी जंगल ढूंढने निकली

पंख लगा के झूमने निकली

लाल लताओं को भी देखो

अब तक जंगल घूम रही है,

पेड़ों से पेड़ों की दूरी

संध्या काले साँझ सबूरी

अनथक राहें लम्बी रातें

रेगिस्तांं से चाँद की धूरी

पूछ रही है कितनी है पर्वत से मंगल की दूरी

फिर दूरी से दूर दराज़ों

के अचरज में गड़ जाने को

मंदिर मन्दिर चढ़ जाने को

बाड़ लगाओ बढ़ जाने को



तिमिर के पार फिर तिमिर को देखने वालों

अंधेरों को गटकने से मिटेगा तम,

नगर की उन मुंडेरों पर तम्बाकू फूंकने वालों

जले विष की धुआं से ही फफकता हाँ मिटेगा गम,

चरम पर फिर उगा सूरज

समंदर में समायेगा

गया खोया हुआ पवन समय

कब लौट पायेगा,

कई ख़ामोश रातों ने खोले राज़ हैं गहरे

कई अंजान राहों के सबेरे, हैं सभी बहरे,

अंकुर फूटता कब है

किसी बरगद की शाखों में

डाली को पड़े रखना

हरे नीले शेवालों तक ,

मंथर चाल चलते देखते

संदिल सभी बूढ़े

बूढी खाल बूढ़े मांस बूढी जीव की काया को - कंचन स्वप्नों के

लाघं वो डेरे - उड़ जाने को, पार जगत की आस जड़ों से

मगरा मगरा जुड़ जाने को,

पांवों पर पड़े पानी

पानी में पड़े पत्ते

पत्तों को अमूमन सो बरस

के बाद फिर से अब,

हौले - हौले

धीमे - धीमे धूप - छांह, बारिश अंधड़ में


कंचन बन सड़ जाने को

बाड़ लगाओ बढ़ जाने को


मंदिर मन्दिर चढ़ जाने को

बाड़ लगाओ बढ़ जाने को...।




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