परछाइयाँ
परछाइयाँ
परछाइयाँ
बंद करती हूँ जब भी अपनी पलकें
दृश्यपटल पर उभर आती हैं
कुछ परछाइयाँ,
एक परछाई की उँगली थामे
मैं चली जा रही हूँ
वो मुझे कंधे पर बैठाती है
सीने से लगाती है
कभी चूमती है माथा
दुलराती है
दृश्य बदलता है फिर
एक परछाई के प्रेम में
डूब जाने को दिल करता है
दुपट्टा लहरा कर
इतराने को दिल करता है
दिल के इशारे पहुँचते हैं दिल तक
हाथों में उसके थमा कर डोर
पतंग बन उड़ जाने को दिल करता है,
तभी !
अचानक दृश्य बदलता है
धुँआ सा उठता है
हवन कुण्ड से
किसी का हाथ थामे
इर्द-गिर्द घूमती हूँ अग्नि के
‘वह’ भर लेता है बाँहों में
मै पिसती जाती हूँ,
कराहती, विनती करती,
पुकारती हूँ सहायता को
घुटने लगता है दम,
सांस लेना दूभर,
बेचैन हो तड़पती हूँ,
उस बंधन से मुक्त होने को
अचानक वही हवन कुण्ड का धुँआ,
उठने लगता है मेरे भीतर से
सुलगती हुई धीरे-धीरे
राख के ढेर में बदल जाती हूँ
यकायक एक तेज हवा का झोंका
ढेर राख का उड़ा कर बिखेर देता है,
एक बार फिर से दृश्य बलता है,
गिरती है वो राख जहाँ-जहाँ,
कुछ कोपले उग आती हैं,
आते हैं उन पर सुन्दर फूल ,
फिर वही हवा उन फूलों की सुगंध से,
महका देते है वातावरण,
तो क्या महकने के लिए,
जरूरी है सुलग कर राख होना ??
गर्म सोते के जल का प्रवाह
पलकों की सीपियाँ रोक नही पातीं
सीपियाँ खुलती हैं और
बह निकलता है जल प्रपात ||