सृष्टि की दृष्टिजन्य निरंतरता
सृष्टि की दृष्टिजन्य निरंतरता
जीवन के वास्तविक कैनवस पर
अपूर्णता की आंखमिचौली
एक ईश्वरीय सत्य है
अपूर्णता में ही पूर्णता की चाह है।
तलाश है
अपूर्णता के गर्भ से
परिस्थितिजन्य पूर्णता का जन्म
सृष्टि की दृष्टिजन्य निरंतरता है !
पूर्णता का विराम लग जाए
फिर तो सबकुछ खत्म है
न खोज,न आविष्कार
न आकार, न एकाकार।
संशय का प्रस्फुटन
मन को, व्यक्तित्व को
यायावर बनाता है
कोलंबस यायावर न होता।
तो अमेरिका न मिलता
वास्कोडिगामा को भारत ढूँढने का
गौरव नहीं मिलता !
मृत्यु से आत्मा की तलाश
आत्मा की मुक्ति
और भ्रमित मिलन का
गूढ़ रहस्य जुड़ा है
खुदा यूँ ही नहीं
आस पास खड़ा है !
कल था स्वप्न
या आज स्वप्न
क्या होगा उलझकर प्रश्नों में
कल गया गुजर
गुजर रहा आज है।
आने वाला कल भी
अपने संदेह में है
मिट गया या जी गया
या हो गया है मुक्त
कौन कब यह कह सका है !
एक शोर है
एक मौन है
माया की कठपुतलियों का
कुछ हास्य है
रुदन भी है
छद्म है वर्तमान का।
जो लिख रहा अतीत है
भविष्य की तैयारियों पर
है लगा प्रश्नचिन्ह है !
मत करो तुम मुक्त खुद को
ना ही उलझो जाल में
दूर तक बंधन नहीं
ना ही कोई जाल है।
खेल है बस होने का
जो होकर भी कहीं नहीं
रंगमंच भी तुमने बनाया
रंगमंच पर कोई नहीं !
पूर्ण तुम अपूर्ण तुम
पहचान की मरीचिका हो तुम
सत्य हो असत्य भी
धूल का इक कण हो तुम।
हो धुआँ बिखरे हो तुम
मैं कहो या हम कहो
लक्ष्य है यह खेल का
खेल है ये ज्ञान का।
पा सको तो पा ही लो
सूक्ष्मता को जी भी लो
पार तुम
अवतार तुम
गीता का हर सार तुम !