जनवरी
जनवरी
अभी कुछ दिनों पहले ही किसी ने कहा था
के जनवरी के जाड़ें में तुम सेंकती हो धूप
अक्सर अपनी छत पर अकेले टहलती हो
हालाँकि शहर में अब तो आ गया हैं
बारिशों का मौसम, फिर भी
मैंने अपने घर के कैलंडर में रोक रखा हैं जनवरी को
कंपकंपी नहीं होती मगर काँपता हूँ
जलती हुई दोपहर में आ जाता हूँ छत पर
टहलता हूँ बीसियों बार
देखता हूँ तुम्हारी छत को
मैं पागल हूँ,शायद!
तुम तो मुझे जानती भी नहीं हो
बस मैं ही चाहता हूँ तुम्हें
तुम तो मुझे चाहती भी नहीं हो
ये मौसम मेरे मनचाहे क्यूँ बदलेंगे?
आखिर तुम मेरी खातिर छत पर क्यूँ आओगी?