दिल-ए-समझो न
दिल-ए-समझो न
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बड़े मुद्दतो बाद उनसे मिलना हुआ,
उनसे मिलना न मिलना बराबर रहा,
वो खोये रहे कुछ नये अपने में,
एक मै अपने गम में नदारद रहा,
चाहत की नमाज़ें कजा हमने की
हर दर पे मै सजदा करता रहा,
जिनके मन्नत में खुद को भूला था मैं
एक हमे छोड़ वो सबसे मिलता रहा,
मासूम लग रहे थे महफ़िल में वो,
दीदार जिनका था सबको घायल किया,
एक नज़र न देखा था उन्होंने हमे
और मै उनके मुस्कुराहट पे मरता रहा,