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फिर मौसम चुनाव का

फिर मौसम चुनाव का

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फिर मौसम चुनाव का आया
लोकतन्त्र में
फिर से जनता को बहलाने
मूर्ख बनाने
सेवक, धर्मपरायण, परोपकारी
समाजसेवी, शिक्षाविद के कितने
रंगबिरंगे पहन मुखौटे
भिन्न-भिन्न दल के बैनर से
पाँच बरस तक
सत्ता की कुर्सी पर चिपके
दूध, मलाई, रबड़ी खाते
पीते दारू
लाठी लेकर
खोंस कमर में एक तमंचा
भारत के रखवाले पालनहारे
पहने काली, पीली, नीली टोपी
हाथ जोड़ते घूम रहे हैं
जनता की झोंपड़ियों में जा-जाकर
जनता के हत्यारे
इन्हें नहीं परवाह लोक की
लोकतन्त्र की
इन्हें सिर्फ दिखती है कुर्सी
और उसी को रखने सही सलामत
कुछ भी करने को तैयार-
छोड़कर अपने दल को
दूजे में जाने को भी!
अपनी काली सभी कमाई का
खुलकर ये करते हैं उपयोग इन दिनों
इन्हें भरोसा पूरा-पूरा
जीत गए तो
इससे दूनी-तिगुनी
याकि चौगुनी भी
ये कर ही लेंगे-
आनेवाली
पंचवर्षीय योजना में!
इनके पास
सभी सवालों के उत्तर हैं
जनता इन्हें समझती है पर
मूर्ख बनाने की
नटवरी कला में ये हैं अतुलनीय
लोकतन्त्र के लोक!
खोल अब आँखें अपनी
बन्द खिड़कियाँ भी
अपने दिमाग की खोल
भलीभाँति पहचान
कथित इस नेता को
जिसका असली चेहरा छुपा हुआ है
उसके नकली शब्दों के भीतर
और उसे अहसास करा दे
अपनी ताकत का तू अब।
उसे बता दे-आगे उसका नाटक
और न चल पाएगा
और चुनेगी जनता
अपना नेता उसको ही
जो मन से,
और वचन से,
और कर्म से
लोकतन्त्र की सचमुच रक्षा
करता हुआ दिखेगा!
और अगर चेते तुम अब भी नहीं
स्वयं तुम होगे जिम्मेदार पतन के
अपने और राष्ट्र के भी!
देश तुम्हारा
मुक्त हुआ जो बाह्य ताकतों के
सदियों के बन्धन से
मात्र पचास वर्ष पहले वह
विश्व-बाज़ारवाद के जरिये
बहुत शीघ्र ही
फिर से होगा कैद
विदेशी पूँजी की
समग्ररूपेण!
जला चुके हो होली
तुम जिस भाँति
स्वदेशी की पिछले बरसों में
वस्त्रों की ही नहीं
आचार-विचारों की भी
सावधान करता हूँ तुमको
क्योंकि काल की तुला
करेगी इंगित सिर्फ तुम्हारी ओर
नहीं मिलेगी मुक्ति
तुम्हें इस बार!
सावधान करता हूँ तुमको
लोकतन्त्र के सजग पहरुओ
हो जाओ अब ख़बरदार!

 


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