आज फिर कुछ यूँही ...
आज फिर कुछ यूँही ...
आज फिर कुछ यूँही ...
आज न जाने क्यों उसने
पूछ ही लिया -इतनी चुप्प !
आखिर क्यों रहती हो तुम ?
मैं एकबारगी अचकचा सी गई
ऐसे बेतुके, अजीब से सवाल से
डर भी गई ..थोड़ा कम ही सही
मेरी चुप्पी ने क्या इसे भी ,
कर लिया अपने दायरे के भीतर ?
फिर हँसते -हँसते कहा ,चुप्प ?
नहीं तो ,बोलती तो हूँ इतना !
चुपचाप ही कहा -तुम चुप रहो ,
तब तो सुनोगे मेरा बोलना !
और ....चुप हो गई ......