नदी का प्रेम
नदी का प्रेम
है दूर देश से आई नदी,
चलकर सागर के पास।
सागर ने ले कर बाहों में,
किया खूब स्वागत सत्कार।
बोला सागर सुनो ! प्रिय,
है क्यों इतनी देर लगाई।
कब से खड़ा प्रतीक्षारत में,
करने तुम्हारी प्रेम अगुवाई ।
साँस खींच फिर बोली नदी,
कुछ क्षण लेने दो विश्राम।
थे कितने कष्ट उठाए मैंने,
हो तुम इन सबसे अनजान।
छुप छुप के आई तुमसे मिलने,
फिर भी लोगों ने देख लिया।
पत्थर अपशब्दों के असीम पड़े,
अपनों ने भी मुँह मोड़ लिया।
थी ठानी तुमको पाने की,
नहीं किसी की चिंता की।
घात प्रतिघात सहकर भी,
पास प्रियतम के पहुँच गई।
सागर बोला धैर्य रखो तुम,
मत तुम इतना घबराओ।
मीरा का प्रेम सुना तुमने,
राधा कान्हा के गुन गाओ।
कृष्ण प्रेम दीवानी मीरा ने,
पी लिया विष का प्याला था।
कृष्णमय होकर दीवानी ने,
संसार अपना रच डाला था ।
सच्चा प्रेम होता अपरिमित,
नहीं उसका कोई आर-पार।
क्यों भूल रही तुम लैला मजनूं ,
हीर रांझे का सच्चा संसार।
आत्मिक प्रेम अमर अटूट है,
है नहीं कोई इसका जोड़।
नहीं हिम्मत किसी प्राणी में,
जो दो आत्माओं को दे तोड़।