परछाई
परछाई
चलते-चलते, रुकते-रुकते,
परछाइयाँ पीछा करती है,
बहुत करूँ कोशिश पर,
नहीं पकड़ में आती है।
जरा हमारा करो विश्वास,
तुम्हारी बर्बादी में,
ना कोई हाथ है मेरा,
तुम्हारे प्यार में, नफरत में।
अब ना कोई विश्वास है मेरा,
तुमने अन्जाने में,
मुझ पर कैसा दोष लगा दिया।
ना जाने किस आग में,
फिर से मुझे जला दिया,
क्या मैं कभी,
दोषमुक्त हो पाऊँगी ?
चाहकर भी उन परछाइयों से,
ना पीछा छुड़ा पाऊँगी।।