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बचपन और बुढ़ापा

बचपन और बुढ़ापा

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जब पहली बार पापा मुझे स्कूल ले जा रहे थे,

डर को भगाने के लिए तसल्ली दिए जा रहे थे।

कहते थे तुझे तो बहुत बड़ा नाम करना है,

लोग तेरे नाम को पहचाने ऐसा काम करना है।


जब जब हाथ था सर पे मैं आगे बढ़ता गया,

सफलता की ऊंचाइयों के शिखर पर चढ़ता गया।

शादी हुई, बच्चे हुए और नया परिवार बनाया,

नाम का क्या वो भी मैने बहुत खूब कमाया।


जिस तरह पापा ने मुझे बचपन में रास्ता दिखाया,

वैसे ही मैने भी उन्हें बुढ़ापे में एक रास्ता दिखाया।

मेरे बचपन में वो मुझे ज़िद करके ले जा रहे थे,

उनके बुढ़ापे में मैं उन्हें ज़िद करके ले जा रहा था।


मंजर था वही जब उन्होंने मज़बूती से हाथ पकड़ा था,

बचपन में मेरा, बुढ़ापे में मैने उनका हाथ पकड़ा था।

नासमझ था उस वक्त कुछ भी समझ नहीं आया,

जाने कैसे मैंने अपने पापा को वृद्धाश्रम पहुँचाया।


अनजाने में ही मेरी ग़लतियों में गुमराह हो गए,

पहचान देकर मुझे मेरे पापा अब लापता हो गए।

आज मैं दर बदर हर नई गलियों में भटक रहा हूँ,

सभी से अपने खोये पापा का पता पूछ रहा हूँ।


फर्क नहीं होता ज्यादा चाहे बुढ़ापा हो या बचपन,

दोनों को हाथ पकड़ कर दिखाना होता है जीवन।

बचपन में हाथ पकड़ा उन्होंने तो जीवन ही तर गया,

मैंने बुढ़ापे में उनका हाथ पकड़ा तो भूल कर गया।



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