एक अबला
एक अबला
उठता है दर्द
कभी इनके भी अंदर
जेहन में
बैचेनियों का सैलाब लिये।
जब आती है थकी हारी
ईंट पत्थर उठाते
धूल गारे से लथपथ।
कहने भर का घर
सिर्फ़ एक चारदीवारी
सहम जाती है ये बेचारी
जब बू बहती है नासिका से
शराब की।
ताने कसते
मर्दाना आवाज़ से सहमी
चूर-चूर हो जाती है,
न..न थकान से नहीं
बदसूरत ज़िंदगी के
थपेड़ों से हारी।
बस किस्मत की मारी
एक बेबस
बेचारी नारी।
पलटवार की
गुंजाइश कहाँ
पड़ती है लात
पेट पर।
नामर्दगी का
प्रदर्शन किये
नर होता है
एक अबला पे भारी।।