आज फिर आना पड़ा हताशा
आज फिर आना पड़ा हताशा
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आज फिर आना पड़ा हताशा
तुम्हें
मुझे बहलाने के लिए।
मेरे भरोसों के पांव में
चुभ गये हैं काँटे
धोखे, विहँस रहे हैं
साजिश के कामयाबी का
जश्न मनाते हुए कुछ लोग
आज ज़्यादा ही पी रहे हैं।
आज फिर मेरे दावे
बिखर गए हैं जो
मैंने किए थे हमेशा ही कविता में
उनको लेकर।
कितनी चीज़ों से मिलकर बनी आशा
जब ओझल हो गई है
हताशा ही है
जो मेरा साथ दे रही है।