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बारिश की जलन

बारिश की जलन

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कल रात बरसी थी बदरी
छोटी मोटी मासूम शिकायतों के बीच
और फिर ठहर कर 
जायजा लिया था उसने
आसमान में उड़ते तमाम 
इंसानी पंखों का
कहती फिरी थी घर-घर 
मैं कैसे गिरूं बेलौस 
मेरी राह में तो आ बैठी हैं 
धुंए की गहराती मदहोशियाँ
गिरुं भी तो जला देती है मेरा जल
जंगल में लावारिस पड़ी 
पत्तियां
मैंने देखी थी बारिश 
अपनी बालकनी से छिपकर
उसने भी देखा था मुझे सरेआम
और इठला कर 
एक नजर डाल कर मुझ पर 
तिरछी चाल चलती हुई
भिगो गई थी मेरे पैर
कल रात से ही मैं 
भीगे पैर लिए 
घूम रही हूं 
घर और बाहर 
छान रही हूं चप्पा-चप्पा
कि कहीं मिल जाए 
दो बूंद उसी बरसती हुई बारिश के 
कि मेरे सीने में इन दिनों 
जलन बढ़ सी गई लगता है...


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