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प्रतिदान

प्रतिदान

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सूरज

तुम जब भी आते हो

आग उगलते आते हो

लाल सुर्ख चेहरा लिए

डर कर भीतर छिप

जाती हूँ मैं

तुम ढूढ़ते हो दिन भर

और थक हार कर

लौट जाते हो

अगले दिन फिर से

आग उगलते हुए

लौट आने के लिए


चाँद फिर आता है

अपने प्रेम का

इज़हार लिए

घुटने के बल बैठ

चाँदनी का आँचल

ओढ़ा कर

माँगता है प्रेम

का प्रतिदान

पर मेरे निर्णय

लेने से पहले ही

ग़ायब हो लीन हो जाता है

घने अंधकार में


मुझे सूरज और चाँद

दोनों की दरकार नहीं

रास्ता देख रही हूँ

उसका

जो समझे मेरा मन

मेरी सुने

बेशक गुलफाम न हो

राजा भी नहीं

गौतम बुद्ध तो

बिल्कुल नहीं

सिर्फ प्रेमी हो मेरा

सीधा सादा प्रेमी


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