अल्पायु
अल्पायु
एैसा लगता है लम्हें जम गये हो, मानो
लूटा गया हो रात को सुनार अपना पूरा खजाना..!
रत्न कनीका सी ये बूंदें लगती है एैसी,
जैसे पत्तों पे क्या मोती उगे है,
या है इनके आँसू,
शबनम के मोती से लगती
धुली धुलाई धरती..!
गिरती शबनम ने मानो कई ख्वाब समेटे हो
एैसे थमकर बैठी है पत्तों के किनारे पर
सोच रही है क्या जाने क्या होगा..!
सुबह की कीरन क्या लेकर आयेगी
किसी फूल की पंखुड़ियों की आगोश,
या यूंही मील जाना है मिट्टी में
ज़िन्दगी मिली एक रात की सुनलो दिल की बात..!
न मै अश्क हूँ, ना ही हूँ में मोती
रात के आँचल से गिरी
मै तो एक बूँद ओस की,
आसमान से चलकर
आज ही जमी पर उतरी हूँ
मेरा कुछ पल का है अफ़साना
देख लो जी भरकर छूने भर से बिखर जाऊँगी
कुछ पल में मिट जाऊगी, बस कुछ पल का है साथ,
जैसे अंडा फ़लने को बेकरार एक बूँद की आस में॥